बुरे समय में नींद (काव्य संग्रह)पर
नामवर सिंह और मदन कश्यप की बातचीत
मदन कश्यप :आज हमलोग चर्चा करने जा रहे हैं हिंदी के युवा कवि रामाज्ञा शशिधर के नए कविता संग्रह 'बुरे समय में नींद 'पर.नामवर जी, ऐसे तो यह उनका तीसरा है लेकिन मुकम्मल रूप से पर यह
पहला संग्रह ही है.रामाज्ञा ऐसे तो प्राध्यापक भी हैं लेकिन एक एक्टिविस्ट-कवि की उनकी छवि बनी है.
नामवर सिंह : हाँ,ये तो हमारे जेएनयू की उपज हैं.पहली बार मैंने इस रूप में इनको जाना . आजकल तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ये सहायक प्रोफ़ेसर हैं.अब चूंकि ये रहनेवाले सिमरिया घाट के और बनारस में इनको नौकरी मिली,और बनारस में जो मैं जानता हूँ रामनगर के ठीक सामने गंगा किनारे सामने घाट है.तो सिमरिया घाट से सामने घाट तक ये पहुंचे हैं.यानी घाट घाट का पानी पीकर.एक तरह से ये दलित वर्ग से आते हैं.और उसके अनुभवों की,और साथ ही, जो समाज को देखने की एक आलोचनात्मक दृष्टि,देखने की क्षमता और कविता में विविधता .इन्होने किसिम किसिम की कवितायेँ लिखी हैं.छंद में प्रयोग किये हैं.बेछंद भी लिखा है.लोकगीत की शैली में लिखा है.
मदन कश्यप:वे बुनकरों के लिए काम करते रहते हैं.उनके जीवन संघर्षों में शामिल भी रहते हैं.लड़ाई लड़ना,पर्चे लिखना,समयांतर में लेख लिखना.उनलोगों के बारे में भी कवितायेँ लिखी हैं.
नामवर सिंह: शशिधर बहुत ही साफ़ सुथरी भाषा लिखते हैं,जो बोलचाल की भाषा होती है.संस्कृताऊ नहीं. कई तरह के प्रयोग इन्होने किये हैं.और कभी कभी फैंटेसी में जाते हैं.बल्कि 'बुरे समय में नींद' फैंटेसी जैसी कविता है.थोड़ी लम्बी है वह. शुरू होती है कविता -इस बुरे समय में /देर अबेर आती है नींद/नींद के साथ ही शुरू होता है सपना.अंत में कहते हैं-यह कैसा सपना है /जिसमे कभी मुर्गे नहीं देते बांग/गंगनहौनी -क्या बढ़िया शब्द इस्तेमाल किया है!-गंगनहौनी नहीं गाती बटगीत/रात चलती है /चाँद की लाश कंधे पर उठाये. कहीं कहीं उनके प्रयोग,जब वे फैंटेसी में उड़ते हैं, तो मुक्तिबोध वाला जो रंग है, वह दिखाई देता है.
मदन कश्यप: लोकजीवन का शब्द है गंगनहौनी .
नामवर सिंह : हाँ लोक का शब्द.उनकी एक कविता ,जो छंदबद्ध है, 'बदलो जी' को देखते हैं-
बदलो जी,बदलो जी
पोखर के पानी को
सड़ी हुई छानी को
बासी कहानी को
बदलो जी बदलो जी
जंग खाई रांपी को
लग्गे की नापी को
नागरिक की कांपी को
बदलो जी बदलो जी
ताले की चाबी को
धमकी को दाबी को
झूठी कामयाबी को
बदलो जी बदलो जी
बोरसी की आग को
दिल और दिमाग को
घिसे पिटे राग को
बदलो जी बदलो जी
एक कविता इनकी है रजाई पर.शायद ही किसी को रजाई पर कविता लिखने की बात सूझी हो.एक तरह से मांझी-मल्लाह तो है , और कभी कभी सांस्कृतिक वर्ग पर लिखते हैं. कद्लीपत्रम कविता है,बासमती गीत है,छठ का पूआ है.सिमरिया घाट की कविताओं में अपनापन ज्यादा है.उसका छंद,उसकी भाषा भी अलग है.सामनेघाट वाली कविताओं में देखें,बनारस के बुनकर मशहूर हैं,बनारस के बुनकरों द्वारा शिल्प बुना जाता है,बाकी कबीर की परंपरा में जुलाहे भी हैं. तो बुनकरों पर लिखा है इन्होंने.एक कविता इसमें नया आपातकाल है .बुद्धिजीवियों के खिलाफ लिखा है इन्होने.धूमिल की तरह ये भी बुद्धिजीवियों के कुछ ज्यादा ही विरोधी मालूम होते हैं. तो विविधतता इतनी है इसमें.
मदन कश्यप : लम्बा जीवनानुभव है,विविध तरह के ...
नामवर सिंह : रेडियो पर भजन है,इस पर भी एक कविता है.भूख पर कविता बहुत अच्छी है.चार रंग भूख के दिखाए हैं. मुंडेर पर कौआ.परमिट कोटा पर भी लिखा है उन्होंने.एक कविता भाषा पर भी इनकी है.एक विचित्र शीर्षक है 'चुम्बन झाग'.तो चुम्बन झाग है.खरबूजे पर भी लिखी है कविता.नाव पर भी एक जर्जर नैया है.तो विविधता इतनी है.यानी इनकी दुनिया एक बहुत बड़ी दुनिया है.भरीपूरी दुनिया है.और उस दुनिया में ये इन्वोल्व हैं .उन चीजों को डूबकर देखना और साथ ही टिपण्णी करते समय तटस्थ होकर बेवाकी से टिपण्णी करना.कह सकते हैं गहरे जीवन अनुभव से .रामाज्ञा शशिधर की कविता में जो धार है,मै कहूँगा कि उस धूमिल वाली परंपरा में एक अरसे बाद मुझे दिखा है.
मदन कश्यप : वहां मोचीराम था तो यहाँ भी एक मोची है-बाँके मोची.
नामवर सिंह : इसलिए साधारण जनों के बारे में कविता लिखना ,उनको विषय बनाना आजकल छूटा सा चला जा रहा है.
मदन कश्यप : हिंदी में यह कठिन समय है जब तरह तरह के शिल्प चमत्कार दिखाने की कोशिश हो रही है.
नामवर सिंह: जी.
मदन कश्यप : और मध्यवर्ग की एक छोटी सी दुनिया है उनकी कुंठाओं , लालच और बाजार के हमलों को विषय बनाकर तरह तरह के प्रयोग हो रहे हैं.
नामवर सिंह : जो हो,कुल का नतीजा निकलता है -हमने बदलो जी कविता ली है-वो यह है कि बदलाव पर जोर है कि बदलो. आजकल आमतौर से लोग यथास्थिति में हैं.
मदन कश्यप : सीधी और सरल भाषा में बदलाव को इतनी गहराई से लिया गया है.यह एक बड़ी सफलता है.मुझे लगता है ऐसी सफलता तब आती है जब आदमी संघर्ष और संवेदना के स्तर पर,और अनुभव के स्तर पर हिस्सेदार बनता है.
नामवर सिंह : कविता की दुनिया में लगभग एक नयी आवाज़ ने पहचान बनाई है. मेरा ख्याल है कि इस पर कवियों का भी ध्यान जाना चाहिए और पाठकों का भी.
मदन कश्यप: सबसे पहले इसपर आपका ध्यान गया,इसलिए आपका धन्यवाद.
नामवर सिंह:आपका भी.
समाप्त
नामवर सिंह और मदन कश्यप की बातचीत
मदन कश्यप :आज हमलोग चर्चा करने जा रहे हैं हिंदी के युवा कवि रामाज्ञा शशिधर के नए कविता संग्रह 'बुरे समय में नींद 'पर.नामवर जी, ऐसे तो यह उनका तीसरा है लेकिन मुकम्मल रूप से पर यह
पहला संग्रह ही है.रामाज्ञा ऐसे तो प्राध्यापक भी हैं लेकिन एक एक्टिविस्ट-कवि की उनकी छवि बनी है.
नामवर सिंह : हाँ,ये तो हमारे जेएनयू की उपज हैं.पहली बार मैंने इस रूप में इनको जाना . आजकल तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ये सहायक प्रोफ़ेसर हैं.अब चूंकि ये रहनेवाले सिमरिया घाट के और बनारस में इनको नौकरी मिली,और बनारस में जो मैं जानता हूँ रामनगर के ठीक सामने गंगा किनारे सामने घाट है.तो सिमरिया घाट से सामने घाट तक ये पहुंचे हैं.यानी घाट घाट का पानी पीकर.एक तरह से ये दलित वर्ग से आते हैं.और उसके अनुभवों की,और साथ ही, जो समाज को देखने की एक आलोचनात्मक दृष्टि,देखने की क्षमता और कविता में विविधता .इन्होने किसिम किसिम की कवितायेँ लिखी हैं.छंद में प्रयोग किये हैं.बेछंद भी लिखा है.लोकगीत की शैली में लिखा है.
मदन कश्यप:वे बुनकरों के लिए काम करते रहते हैं.उनके जीवन संघर्षों में शामिल भी रहते हैं.लड़ाई लड़ना,पर्चे लिखना,समयांतर में लेख लिखना.उनलोगों के बारे में भी कवितायेँ लिखी हैं.
नामवर सिंह: शशिधर बहुत ही साफ़ सुथरी भाषा लिखते हैं,जो बोलचाल की भाषा होती है.संस्कृताऊ नहीं. कई तरह के प्रयोग इन्होने किये हैं.और कभी कभी फैंटेसी में जाते हैं.बल्कि 'बुरे समय में नींद' फैंटेसी जैसी कविता है.थोड़ी लम्बी है वह. शुरू होती है कविता -इस बुरे समय में /देर अबेर आती है नींद/नींद के साथ ही शुरू होता है सपना.अंत में कहते हैं-यह कैसा सपना है /जिसमे कभी मुर्गे नहीं देते बांग/गंगनहौनी -क्या बढ़िया शब्द इस्तेमाल किया है!-गंगनहौनी नहीं गाती बटगीत/रात चलती है /चाँद की लाश कंधे पर उठाये. कहीं कहीं उनके प्रयोग,जब वे फैंटेसी में उड़ते हैं, तो मुक्तिबोध वाला जो रंग है, वह दिखाई देता है.
मदन कश्यप: लोकजीवन का शब्द है गंगनहौनी .
नामवर सिंह : हाँ लोक का शब्द.उनकी एक कविता ,जो छंदबद्ध है, 'बदलो जी' को देखते हैं-
बदलो जी,बदलो जी
पोखर के पानी को
सड़ी हुई छानी को
बासी कहानी को
बदलो जी बदलो जी
जंग खाई रांपी को
लग्गे की नापी को
नागरिक की कांपी को
बदलो जी बदलो जी
ताले की चाबी को
धमकी को दाबी को
झूठी कामयाबी को
बदलो जी बदलो जी
बोरसी की आग को
दिल और दिमाग को
घिसे पिटे राग को
बदलो जी बदलो जी
एक कविता इनकी है रजाई पर.शायद ही किसी को रजाई पर कविता लिखने की बात सूझी हो.एक तरह से मांझी-मल्लाह तो है , और कभी कभी सांस्कृतिक वर्ग पर लिखते हैं. कद्लीपत्रम कविता है,बासमती गीत है,छठ का पूआ है.सिमरिया घाट की कविताओं में अपनापन ज्यादा है.उसका छंद,उसकी भाषा भी अलग है.सामनेघाट वाली कविताओं में देखें,बनारस के बुनकर मशहूर हैं,बनारस के बुनकरों द्वारा शिल्प बुना जाता है,बाकी कबीर की परंपरा में जुलाहे भी हैं. तो बुनकरों पर लिखा है इन्होंने.एक कविता इसमें नया आपातकाल है .बुद्धिजीवियों के खिलाफ लिखा है इन्होने.धूमिल की तरह ये भी बुद्धिजीवियों के कुछ ज्यादा ही विरोधी मालूम होते हैं. तो विविधतता इतनी है इसमें.
मदन कश्यप : लम्बा जीवनानुभव है,विविध तरह के ...
नामवर सिंह : रेडियो पर भजन है,इस पर भी एक कविता है.भूख पर कविता बहुत अच्छी है.चार रंग भूख के दिखाए हैं. मुंडेर पर कौआ.परमिट कोटा पर भी लिखा है उन्होंने.एक कविता भाषा पर भी इनकी है.एक विचित्र शीर्षक है 'चुम्बन झाग'.तो चुम्बन झाग है.खरबूजे पर भी लिखी है कविता.नाव पर भी एक जर्जर नैया है.तो विविधता इतनी है.यानी इनकी दुनिया एक बहुत बड़ी दुनिया है.भरीपूरी दुनिया है.और उस दुनिया में ये इन्वोल्व हैं .उन चीजों को डूबकर देखना और साथ ही टिपण्णी करते समय तटस्थ होकर बेवाकी से टिपण्णी करना.कह सकते हैं गहरे जीवन अनुभव से .रामाज्ञा शशिधर की कविता में जो धार है,मै कहूँगा कि उस धूमिल वाली परंपरा में एक अरसे बाद मुझे दिखा है.
मदन कश्यप : वहां मोचीराम था तो यहाँ भी एक मोची है-बाँके मोची.
नामवर सिंह : इसलिए साधारण जनों के बारे में कविता लिखना ,उनको विषय बनाना आजकल छूटा सा चला जा रहा है.
मदन कश्यप : हिंदी में यह कठिन समय है जब तरह तरह के शिल्प चमत्कार दिखाने की कोशिश हो रही है.
नामवर सिंह: जी.
मदन कश्यप : और मध्यवर्ग की एक छोटी सी दुनिया है उनकी कुंठाओं , लालच और बाजार के हमलों को विषय बनाकर तरह तरह के प्रयोग हो रहे हैं.
नामवर सिंह : जो हो,कुल का नतीजा निकलता है -हमने बदलो जी कविता ली है-वो यह है कि बदलाव पर जोर है कि बदलो. आजकल आमतौर से लोग यथास्थिति में हैं.
मदन कश्यप : सीधी और सरल भाषा में बदलाव को इतनी गहराई से लिया गया है.यह एक बड़ी सफलता है.मुझे लगता है ऐसी सफलता तब आती है जब आदमी संघर्ष और संवेदना के स्तर पर,और अनुभव के स्तर पर हिस्सेदार बनता है.
नामवर सिंह : कविता की दुनिया में लगभग एक नयी आवाज़ ने पहचान बनाई है. मेरा ख्याल है कि इस पर कवियों का भी ध्यान जाना चाहिए और पाठकों का भी.
मदन कश्यप: सबसे पहले इसपर आपका ध्यान गया,इसलिए आपका धन्यवाद.
नामवर सिंह:आपका भी.
समाप्त
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें