.रामप्रकाश कुशवाहाहिंदी आलोचना में मार्क्स,आंबेडकर और निजी परंपराओं के भीतर से सूत्र विकसित करने वाले हमारी पीढ़ी के विरल आलोचक हैं.पिछले दिनों चिंतन दिशा में कवि ज्ञानेंद्रपति पर आया इनका मुकम्मल लेख पठनीय है. शोर और गठजोड़ संस्कृति से दूर रहने के कारण वस्तुओं से सिद्धांत सृजन में उन्हें मजा आता है.समयांतर के जून २०१३ में छपित रामप्रकाश की यह समीक्षा आपके सामने हाजिर है-माडरेटर
हिन्दी कविता में किसान-जीवन और यथार्थ की उपसिथति-अनुपसिथति के बढ़ते-घटते ग्राफ को समझने के लिए हमें साहित्य से पहले हिन्दी-क्षेत्र के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझना होगा । यह एक दुखद सच्चार्इ है कि औधोगिककरण,शहरीकरण,बाजारवाद और भूमण्डलीकरण की दिशा में हुए देश के विकास तथा सरकारी नीतियों नें