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12 दिसंबर, 2013

पुरानी नाव की पुकार

छोड़ गया बाढ़ का पानी
तेरे संग की सघन निशानी
 डबडबाई आँखों सा गीला किनारा
बच गया
समय की पपनियों पर गाद
रच

10 दिसंबर, 2013

देख तमाशा लकड़ी का

काशी के शिल्पी की छवियाँ देखिये।

11 जून, 2013

आंदोलन की जमीन को कला की कड़ी से मापने वाली किताब

.रामप्रकाश कुशवाहा हिंदी आलोचना में मार्क्स,आंबेडकर और निजी परंपराओं के भीतर से सूत्र विकसित करने वाले हमारी पीढ़ी के विरल आलोचक हैं.पिछले दिनों चिंतन दिशा में कवि ज्ञानेंद्रपति पर आया इनका मुकम्मल लेख पठनीय है. शोर और गठजोड़ संस्कृति से दूर रहने के कारण वस्तुओं से  सिद्धांत सृजन में उन्हें मजा आता है.समयांतर के जून २०१३ में छपित रामप्रकाश की  यह समीक्षा आपके सामने हाजिर है-माडरेटर 

30 मार्च, 2013

मैं साम्यवादी नहीं था :मार्टिन नीमोलर

मार्टिन नीमोलर (1892-1984) की  आप बीती 


पहले वो आए साम्यवादियों के लिए
और मैं चुप रहा 
क्योंकि मैं साम्यवादी नहीं था 


फिर वो आए मजदूर संघियों के लिए
और मैं चुप रहा 
क्योंकि मैं मजदूर संघी नहीं था 

कविता में किसान




  रामप्रकाश कुशवाहा 

    चिंतक  एवं  लेखक                                              

हिन्दी कविता में किसान-जीवन और यथार्थ की उपसिथति-अनुपसिथति के बढ़ते-घटते ग्राफ को समझने के लिए हमें साहित्य से पहले हिन्दी-क्षेत्र के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझना होगा । यह एक दुखद सच्चार्इ है कि औधोगिककरण,शहरीकरण,बाजारवाद और भूमण्डलीकरण की दिशा में हुए देश के विकास तथा सरकारी नीतियों नें