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17 दिसंबर, 2018

हिंदी लेखक का पुरस्कार प्रेम छिछला है :रामाज्ञा शशिधर

📗मालवीय चबूतरा संवाद📗  
                   
कुछ अच्छे लेखक हैं, जो कुछ बड़ा और महान रच रहे हैं, वे मारे जा रहे हैं, या जेल में बंद हैं। और कुछ पुरस्कारमार्गी लेखक हैं, जो पाँच सौ रुपए के सरकारी, गैरसरकारी पुरस्कार से लेकर, पाँच लाख के पुरस्कार तक के लिए सारा तिकड़म भिड़ाते हैं, जिन्हें मिलने से, पुरस्कार भी कमजोर होगा।

             जिस दौर में एम एम कलबुर्गी कन्नड़ के लेखक मार दिए गये, और वरवर राव तेलुगू के लेखक जेल में बंद हैं, उस दौर में हिन्दी के लेखक पुरस्कार पर बहस कर रहे हैं। संस्कृति, साहित्य और स्वाधीनता जिस दौर में अलार्मिंग स्तर के खतरे पर हो, उस दौर में साहित्य-समाज की चिंता ज्यादा होना चाहिए, न कि पुरस्कार की।
            भारतीय भाषाओं में पिछले दिनों बहुत बड़ा और महान साहित्य नहीं रचा गया, अगर किसी भाषा में महान साहित्य है तो उसे प्राथमिकता देनी चाहिए।

             ज्ञानपीठ एक व्यापारिक घराने का पुरस्कार है। कार्पोरेट पूँजीवाद के दौर में हम हैं। देशी किस्म का पूँजीवाद जो अंग्रेजी राज के समय पैदा हुआ इनमें बिड़ला, डालमिया, गोएनका जैसे नाम थे। यह गोएनका का पुरस्कार है। यह ट्रस्ट का पुरस्कार है। यह प्राइवेट पुरस्कार है। और इस पर लेखक अगर छाती पीटते हैं तो कार्पोरेट कैपिटलिज्म के दौर में, देशी पूँजीवाद में इन्हें अपनी संभावना दिखती है, जो कि गैर प्रासंगिक हो चुका है।
          गोएनका की मर्जी ज्ञानपीठ चलाए, बंद कर दे। नया ज्ञानोदय का संपादक रखे, बदल दे। क्रान्ति और आत्महत्या के दौर में केवल प्रेम का महाविशेषांक निकाले। किसी लेखक की पाँच सौ प्रतियाँ छापे, और वह भी बुक स्टाॅल तक न पहुँचाए। उस गोएनका से अपेक्षा करना कि वह भारतीय भाषाओं व हिन्दी के लिए सोचे, यह लेखकीय ईमानदारी और प्रतिबद्धता में लगे हुए घुन और दीमक का प्रमाण है।
         फेसबुक इन दिनों जितना लोकतंत्र के विकास और विस्तार, तर्क-वितर्क और समाजीकरण का माध्यम है, उतना ही वह ऊल-जलूल, फालतू, गैरतार्किक और एक-दूसरे का चरित्र हनन करने का भी प्लेटफार्म है। फेसबुक ने कमसे कम एक लेखक को तो तबाह ही कर दिया है। फेसबुक ने इतना काम किया है कि हम गहरे imagination में न जाएं, गहरी स्मृति में न जाएं, समाज के मानवीय जीवन को केवल फेस के स्तर पर समझने की कोशिश करें, समाज के तनावों और जटिलताओं के बीच हम देर तक डुबकी न लगा सकें, और इन सब कारणों से मिला यह है कि गहरी राजनीति कि रचनाशीलता क्षुब्ध हुई है। और वह हमारे सामने है।
        हर नयी पीढ़ी अपने दही को मीठा और पुरानी पीढ़ी के दही को माहुर और खट्टा कहती है। वह तो होना भी चाहिए, और है भी, एवं यह सिलसिला जारी रहेगा।
         इसलिए अमिताभ घोष को अंग्रेजी भाषा में पुरस्कार मिलना, एक तरफ भारतीय भाषाओं की रचनाशीलता और प्रतिबद्धता को संशयग्रस्त बनाता है, और दूसरी तरफ यह सोचने के लिए मजबूर करता है कि हिन्दी में भी हम कुछ वैसा लिखें, जिस तरह से अंग्रेजी में चीजें लिखी जा रही हैं। अन्ततः पुरस्कार की राजनीति भारतीय भाषाओं के लोगों को शोभा नहीं देती है।
          ज्यां-पाल सार्त्र को जब नोबेल पुरस्कार मिला था तब उन्होंने कहा था कि - 'यह पुरस्कार मेरे लिए आलू के बोरे की तरह है।' उन्होंने पुरस्कार लौटा दिया। हमें सार्त्र से प्रेरणा लेनी चाहिए, अमिताभ घोष से नहीं। 🔰प्रस्तुति:विवेक मिश्र

03 अक्टूबर, 2018

किसान आंदोलन की जरूरत क्यों है:रामाज्ञा शशिधर

🎤ओपन माइक🎤
📣किसान क्यों सड़कों पर आते हैं?📣
🌜रामाज्ञा शशिधर🌛
📉📉📉📉📉📉📉📉📉📉📉
🎤किसान की किसानी को सिस्टम ने घाटे का पेशा इसलिए बनाया है कि वे खेती छोड़ दे।
🎤कारपोरेट पूँजी क्रोनी और बिचौलिया पूँजी है जो बिना श्रम के दिन रात मोटी होना चाहती है।
🎤किसान की पूरी खेती यानी बीज,खाद,पेस्टिसाइड,बिजली,डीजल,मशीन  सब कुछ कारपोरेट के हाथों सरकार
ने सौंप दिया है।इनकी कीमत हर साल मनमानी बढ़ती है और उत्पाद की कीमत में लगभग ठहराव है।
🎤किसान  का 11 पैसे का आलू 20 रूपये के चिप्स में,3 रुपए का टमाटर 150 रुपए के साउस में,2 रुपए का मक्का 100 रुपए के पॉपकार्न में और 20 रुपए का मक्का 400 रुपए के कोर्नफ्लेक में बिकता है।बीच का माल बिचौलिया कारपोरेट खा जाता है।
🎤प्राइवेट सूदखोर महाजन और बैंक किसान को कर्ज देते हैं जो फाँसी का फंदा या सल्फास की टिकिया तक पहुंचा देते हैं।
🎤अबतक साढ़े तीन लाख किसानों ने सिस्टम की क्रूरता के कारण आत्महत्याएं की हैं।
🎤हाइब्रिड टमाटर की तरह हाइब्रिड राजनीति हो गई है।दोनों बेस्वादू बेरस और बर्गर फ्रेंडली आइटम हैं।
🎤स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट तुरंत लागू कर
किसान समुदाय को राहत दी जा सकती है।
🎤अमेरिका जैसा कारपोरेट संचालक देश अपने कुल 6 फीसदी किसान को 60 फीसदी सब्सिडिज् देता है और भारत जैसा कृषिप्रधान देश अपने 60 फीसदी किसानों को 6 फीसदी सब्सिडिज् देने में उदासीन है।
🎤पूंजीपति एनपीए घोटाला और लोन सब्सिडिज् से देश विदेश में मौज उड़ाते हैं और किसान हजार लाख रुपए कर्ज के कारण जेल आत्महत्या का शिकार होते हैं,यह सिस्टम का जनविरोधी चरित्र और कारपोरेट फ्रेंडशिप का साइन है।
🎤किसान के सामने आत्महत्या, खेती से विस्थापन या आंदोलन ही मुक्ति के मार्ग हैं।
🎤किसान को जाति धर्म से उठकर वर्ग संघर्ष करना होगा और दूध सब्जी अन्न की तरह अपना नेता पैदा करना होगा।
🎤समय आ गया है कि देश में किसान स्वराज्य के लिए गांधियन मार्क्सवाद की अवधारणा रखी जाए।

बीएचयू में महात्मा गांधी

🎤ओपन माइक🎤
📗बीएचयू में गांधीजी📗
✒प्रस्तुति:रामाज्ञा शशिधर✒
🎃चित्र को गौर से देखिए।     
        - यह महामना के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का गांधी चबूतरा है।
          -गांधी जी तेरह बार काशी आए। 1916 और 1942 में बीएचयू में भाषण दिए।  
          -पहले ऐतिहासिक भाषण  में बीएचयू शिलान्यास सभा से स्वर आया-गांधी बैठ जाओ।
        -क्या आप गांधी की 150 वीं वर्षगाँठ और 70वीं गोड्से गांठ पर जानना चाहते हैं कि भारत के वायसराय और राजे रजवाड़ों के सम्मुख मोहनदास करमचंद गांधी ने छात्रों को क्या कहा था?
    गांधी जी का एक एक हर्फ़ आज बीएचयू,बनारस और भारत की पीर कथा कहता है!
        यह भाषण 6 फ़रवरी 1916 को हुआ।तीन दिनों की संगोष्ठी के अंतिम दिन गांधी ने दरभंगा महाराज की अध्यक्षता और एनीबेसेंट के सानिध्य में यह वक्तव्य दिया था।गांधी जी को मालवीय जी ने स्नेहपूर्वक बुलाया था।
       दरअसल गांधी के संबोधन से वायसराय के चम्मच राजे रजवाड़े भड़क उठे और अपनी आलोचना न सहने के कारण अध्यक्ष ही भाग खड़े हुए।
        गांधी जी ने एक जगह लिखा कि वक्ता और श्रोता को भागते देखा गया लेकिन पहली बार अध्यक्ष को गोष्ठी छोड़कर भागते देखा।ऐसे खरे थे लँगोटधारी गांधी।
✒✒✒✒✒✒✒✒✒✒✒✒
🎤यह न सोचें कि हमारा विश्वविद्यालय एक तैयार उत्पाद बन चुका है..और हम एक महान साम्राज्य के अच्छे नागरिक बनकर निकल चुके हैं।आप केवल जबान से यह संदेश कभी न दे सकेंगे कि भारत एक दिन विश्व का उद्धारक बनेगा।
🎤हमारी मुक्ति किसान के जरिए ही आ सकती है।न तो वकील,न डॉक्टर और न ही धनाढ्य भूस्वामी उसे सुनिश्चित कर सकते हैं।
🎤हम सबने आशंका के क्षण बिताए हैं।जब वायसराय बनारस की सड़कों से गुजर रहे थे,जगह जगह जासूस लगा दिए गए थे।हम सभी में भय व्याप्त था।क्या यह लार्ड हार्डिंग के लिए भी बेहतर नहीं होता कि वे मौत के साए में जीते रहने के बजाए मर जाते?
🎤एक अत्यंत भड़कीला शो,आभूषणों का ऐसा प्रदर्शन,जिससे पेरिस से आए बड़े आभूषण निर्माताओं की भी आँखें चौंधिया गईं।मैं इन सजे धजे भद्र लोगों की तुलना देश के गरीब लोगों से करता हूँ।भारत की मुक्ति तबतक नहीं हो सकती जबतक आपलोग इस बहुमूल्य आभूषणों को उतारकर गरीब देशवासियों के लिए एक ट्रस्ट में रख नहीं देते।
🎤कितने भी भाषण हमें स्वशासन के काबिल नहीं बनाएँगे।केवल हमारा आचरण हमें उसके काबिल बनाएगा।
🎤हमारे लिए बड़े अपमान और शर्म की बात है कि महान कालेज के साए में और पवित्र शहर में मुझे देशवासियों को ऐसी भाषा में संबोधित करना पड़ रहा है जो विदेशी है।
🎤एक हिन्दू के रूप में बड़ी भावुकता से कह रहा हूँ कि हमारे पवित्र मंदिर की गलियां क्या वैसी गंदी हों जैसी वे हैं।
🎤अपने देश के प्रति उसके प्यार के लिए अराजकतावादी का मैं सम्मान करता हूँ।अपने देश के लिए उसके मर मिटने की भावना के लिए मैं उसका सम्मान करता हूँ।
🎤आज भारत स्वतंत्र होता,हमारे पास ऐसे शिक्षित व्यक्ति होते जो अपने ही देश में विदेशी जैसे न लगते बल्कि देश के हृदय से उनका संवाद होता,वे गरीब से गरीब लोगों के बीच काम कर रहे होते।
🎤कभी कभी स्वयं पर दोष ले लेना अच्छा है।
           

24 सितंबर, 2018

दिनकर का राष्ट्रवाद क्या है:रामाज्ञा शशिधर

बुद्ध एक संदेश में कहते हैं कि चारों ओर बहुत अंधकार है।मेरे पास कुछ अंगार हैं।मैं उन्हें अंधकार पर फेंक रहा हूँ।दिनकर के साहित्य को इस रूप में भी देखा जाना चाहिए।कविता और वैचारिक गद्य में लगभग बराबर लेखनी चलाने वाले दिनकर का साहित्य उथल पुथल भरे भारत में
 रोशनी और ताप की तरह है।
      आजकल आइडिया ऑफ़ इंडिया की बहस फिर से चारों ओर है।पिछले सालों में अनेक भारतीय प्रतीकों की तरह दिनकर की छीना झपटी शुरू है।कुछ सत्ता संगठनों के लिए इसके राजनीतिक और भावनात्मक कारण ज्यादा हैं सांस्कृतिक और वैचारिक कम।एक कारण दिनकर के बहुआयामी वैचारिक स्तर और यात्राएं भी है।आखिर दिनकर के पास भविष्य के भारत का नक्शा कैसा था?आज यह एक जलता हुआ सवाल है।
      दिनकर अपने समस्त काव्य चिंतन और गद्य दर्शन में एक नए भारत की खोज में उलझे हुए दिखाई देते हैं।भारत एक राष्ट्र है की धारणा 19वीं सदी के सांस्कृतिक चिंतन की देन है।बंगाल, महाराष्ट्र और हिंदी प्रदेश ने उलझे हुए ढंग से ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी कि भारत इंग्लैण्ड से भिन्न किस्म का सामासिक देश है।दिनकर पर रवीन्द्र,इकबाल और गांधी के राष्ट्रवादी चिंतन का गहरा प्रभाव है लेकिन उसकी भावी दिशा नेहरू के इतिहासबोध से जुडी है।दिनकर का भारत भारतीय नवजागरण के संकट से काफी कुछ मुक्त इसलिए  है कि उनके आइडिया ऑफ़ इंडिया पर भारतीय विविधता और आधुनिकता का सकारात्मक प्रभाव है।दिनकर नए भारत की खोज के लिए आख्यान को कई धरातलों और दिशाओं में ले जाते हैं।
       प्रस्थान उनके निजी और ग्रामीण परिवेश से होता है जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश से जुड़कर आकार ग्रहण करता है।दिनकर का भारत बोध जन गण और प्रभु वर्ग के तनाव से पैदा होता है।किसान और गाँव की लूट पर फिरंगी शासन का पूरा ताना बाना खड़ा था।इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति तक भारतीय खेती की लूट और पारंपरिक उद्योग की बर्बादी पर टिकी थी।दिनकर की बीस साल की उम्र में रचित किसान विद्रोह केंद्रित पहली काव्य पुस्तिका विजय संदेश उपनिवेश और उसके देसी आधार ज़मींदार विरोध का उदाहरण है।दिनकर के राष्ट्र चिंतन में यह तनाव आज़ाद भारत की रचनाशीलता में भी लगातार बना रहता है।राष्ट्र किसका होना चाहिए और कैसा होना चाहिए।यह तनाव उन्हें गांधी से मार्क्स तक की यात्रा कराता है।उनके लिए हाशिए की आर्थिक मुक्ति ही प्रथम राष्ट्रधर्म है।
       स्थानीयता और राष्ट्रीयता के बीच मूल्यों, संस्कृतियों और भाषाओं का जैसा अंतर्विरोध भारत में है यूरोप के लिए यह अकल्पनीय है।दिनकर की शुरूआती कविताओं में मिथिला और ग्रामीण लोक संस्कृति की अनोखी व्यंजना है।बाद की कविताओं में राष्ट्रीयता स्थानीयता पर हावी होती चली गई।दिल्ली पर लिखी कविताओं में गाँव फिर लौटता है।वस्तुतः राष्ट्रवाद स्थानिक राष्ट्रीयता का उत्पीड़क है लेकिन तत्कालीन परिवेश की शायद वह जरूरी मांग थी।किसान जीवन पर यदि दिनकर खण्डकाव्य लिखते तो आज वह करोड़ों किसानों की मुक्ति का लाइट हाउस बन सकती थी।फिर भी जनतंत्र का जन्म जैसी कविताएँ जन भारत की खोज है।
          दिनकर के सामने ही भारत की भारतीयता संकग्रस्त हो चुकी थी।संकीर्णता के विचारों ने अनेक स्तरों पर भारत को कब्जे में ले लिया था लेकिन अतीतबोध एक खतरनाक यात्रा पर था।एक ओर ब्रिटिश बौद्धिकता भारत को संपेरों और मनुस्मृति-पुराणों के देश के रूप में गढ़ रही थी दूसरी ओर पुनरुत्थानवादी विचारधारा भी कमोवेश इसकी पुष्टि दूसरे स्तरों पर कर रही है।राष्ट्र के एकल आख्यान और प्राधिकार को दिनकर ने कविता और गद्य में जितनी बड़ी चुनौती दी है हिंदी का कोई दूसरा उपनिवेशकालीन लेखक नहीं दे पाया।
        दिनकर की अतीत और वर्तमान के रिश्तों पर ये पक्तियां गौरतलब हैं-जब भी अतीत में जाता हूँ/मुदों को नहीं जिलाता हूँ/पीछे हटकर फेंकता वाण/जिससे कंपित हो वर्तमान।आजकल शव साधना की बहार है।दिनकर दो संस्कृत महाकाव्यों
में अधिक विविध,लोकतांत्रिक,रचनात्मक और राजनीतिक महाकाव्य महाभारत की कथा चुनते हैं और सिर्फ रूपक के माध्यम से वर्तमान भारत की समस्या का हल पेश करते हैं।कुरुक्षेत्र एक साथ भारतीय युद्ध की हिंसा की परंपरा और आधुनिकता से उपजे युद्ध की हिंसा दोनों को कटघरे में खड़ा कर देती है।रश्मिरथी सत्ता में बहिष्कृत को जगह दिलाने का आख्यान है।
            अतीत और वर्तमान के रिश्तों पर संस्कृति
के चार अध्याय को नए सिरे से देखा जाना चाहिए।यह भारतीयता की अवधारणा पर दिनकर के चिंतन का निचोड़ है।कट्टर हिन्दुत्वपंथी के लिए यह बेहद असुविधाजनक किताब है।दिनकर भारत की खोज करते हुए औपनिवेशिक ज्ञानकांड की राजनीति का गहरा खंडन करते हैं।दिनकर के भारत की निर्मिति में सिर्फ वेद और उपनिषद ही नहीं बल्कि बौद्ध,जैन,पारसी,इस्लाम का बराबर का योगदान है।वे  इस दर्शन को पलट देते हैं कि मुसलमान दसवीं सदी के बाद आक्रांता के तौर पर
आए।
     वे अपनी बात दक्षिण में मुहम्मद साहब के वक्त इस्लाम की खेप से शुरू करते हैं और भक्तिकाल के निर्माण में सूफी दर्शन के जबर्दस्त
योगदान की सामग्री पेश करते हैं।वे ईसाइयत का आगमन अंग्रेजी हुकूमत के साथ नहीं मानते बल्कि केरल के सागर तट  पहुंचे पहली सहस्राब्दी के चिह्नों में खोजते हैं।दिनकर भक्तिकाव्य को असाम्प्रदायिक और भारतीय कविता का रूहानी केंद्र मानते हैं।आज इस पर नए सिरे पर बहस कि जरूरत है।दिनकर खुसरो को हिंदी का आरंभिक बड़ा कवि मानते हैं और वली दकनी को आधुनिक हिंदी का शानदार उदाहरण।कोई बहस के लिए तैयार नहीं है कि दिनकर के वली का मजार बुलडोजर का शिकार कैसे हुआ है।
        दिनकर मुगल काल को भारतीय स्थापत्य,कला,साहित्य और संगीत का समृद्ध काल साबित करते हैं।इस मोटे लेकिन सुपाठ्य ग्रंथ की भूमिका नेहरू जैसे बहुपठित और आधुनिक चिंतक ने बड़ी मार्मिकता से लिखी है।नेहरू भी अपनी मशहूर इतिहास पुस्तक भारत :एक खोज में नए भारत की ही खोज करते हैं।
         दिनकर आजीवन एक बड़े लेखक की तरह भारतीय समाज की सामूहिक चेतना,मूल्यबोध और भौतिक समस्यायों पर एक साथ चिंतन सृजन करते हैं।गुलाम आधुनिकता ने जिन चीजों पर हमला किया था उनमें सिर्फ अतीत,गांव और पेशे ही नहीं थे बल्कि हमारी स्मृति,वाचिकता,भाषाएँ और संस्कृतिबोध भी थे।रामचन्द्र शुक्ल हिंदी कविता की परिभाषा देते हुए उसे वाचिक का विधान कहते हैं।दिनकर जन संवाद करने वाले वाचिक कवि ही नहीं हैं उनके गद्य के अनेक हिस्से बोलते हुए लगते हैं।
                आजकल हिंदुत्व को भारतीय बताने का फैशन और दर्शन हिलोर ले रहा है।ऐसे लोगों को चाहिए कि अपने ही समाज और संस्कृति में रचे बसे कवि चिंतक को एक बार पढ़ें।बुद्ध कहते हैं कि मैं तुम्हें एक नौका दे रहा हूँ।यह पार उतरने के लिए है रेत पर खींचने के लिए नहीं।दिनकर का विचार नए भारत की चढ़ी हुई नदी में तैयार नौका है।

        

29 अगस्त, 2018

राहुल सांकृत्यायन के राष्ट्रवाद की खोज जरूरी:रामाज्ञा शशिधर

📒दिल्ली फ़ाइल-2📒
📚राहुल बाबा:एक ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी📚
✒✒✒✒✒✒✒✒✒✒✒✒✒✒
दिल्ली बदली बदली सी है।आजकल बदली का ही मौसम है।बदली के माहौल में दिल्ली में हूँ।काशी से दिल्ली आना बेगूसराय की अपेक्षा आसान है।दूरी कम है।पुरानी यादों,सड़कों,ज्ञान कला केंद्रों और आत्मीय सहयात्रियों से जुड़ना स्वयं की खोई हुई तलाश है।
       राहुल बाबा पर बहस है,इसलिए यह विचार यात्रा जरूरी है।आज राहुल बाबा जैसे ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी की जरूरत ज्यादा है।वे ऑर्गेनिक इसलिए थे क्योंकि एक साथ एक्टिविस्ट,खोजकर्ता,घुमक्कड़,दार्शनिक और लेखक थे।वे वेदांत पुराण के समांतर खोए हुए बुद्ध की खोज कर सकते थे।वे बिहार के किसान शोषण के विरुद्ध लाठी खा सकते थे।वे हाथी,हथकड़ी और जेल से न डरते हुए जन भाषा में जन सत्याग्रह कर सकते थे।वे भोजपुरी में भाषण ही नहीं देते थे बल्कि 8 नाटक लिखकर एक साथ फिरंगी सत्ता,फासिस्ट सत्ता और सामंती सत्ता से लोहा ले सकते थे।राहुल जी कह सकते थे कि मेरा लेखन खेत को कुदाल से कोरने जैसा है।
            राहुल बाबा बाईसवीं सदी का राष्ट्र बनाना चाहते थे।इसलिए वे बार बार आह्वान करते थे-भागो नहीं दुनिया को बदलो।आज राष्ट्र की उलटी गिनती शुरू है।जो इतिहास और राष्ट्र के भगोड़े थे वे रामराज्य से दुनिया को बदल देना चाहते हैं।
📒दिल्ली फ़ाइल-3📒
📚राहुलबाबा पर जब चला चोरी का मुकदमा📚
✒✒✒✒✒
राहुल बाबा की बेटी जया जी ने राहुल स्मृति संगोष्ठी में प्रोजेक्टर पर ये क्या तस्वीरें दिखाईं-राहुल बाबा दुनिया की सबसे ऊँची जगह तिब्बत की दस हजार फ़ीट के बर्फ देश पर बौद्ध भिक्खु।।                                                                  
            याद आया धर्मशाला में अपने ही देश तिब्बत से जान बचाकर छिपे दलाई लामा और हजारो लामा।नालंदा ट्रेडिशन के जीवंत प्रहरी।स्मृति खंडहर वाले भारत की संवाद शिक्षा पद्धति को बचाए बच्चे।
         राहुल बाबा कभी नेपाल के रास्ते कभी कलिंगपोंग की राह।चार यात्राएं।
        जया जी की मां कमला जी भी तो कालिंगपोंग में राहुल जी के पहले प्यार रूसी लोला के बहुत बाद तब मिली थी जब वे 55 पार थे और पांडुलिपि सृजन में तल्लीन।राहुल बाबा का हर प्यार पांडुलिपि के पन्नों से होकर निकला।

            शब्द और प्यार का अनूठा संसार रचने वाले बाबा चाहते थे कि ब्रिटिश द्वारा गढ़ी गई भारत की छवि को नष्टकर वे पुराना भारत खोज लाएं।आज बुद्ध का वह बर्फ देश ड्रेगन देश की तोप से कब्जा है।
            क्या आप जानते हैं कि आज राहुल बाबा तिब्बत के मठों से क्यों बुद्ध को नहीं ला सकते थे?इसलिए कि ड्रैगन का अघोषित आपातकाल उन प्राचीन तालपत्रों पर भी है जिनमें राष्ट्र और राजनीति की बू तक है।यह जानकारी मुझे भारत में स्थापित निष्कासित तिब्बत मंत्रालय की लायब्रेरी से हिमालय यात्रा के दौरान मिली।खैर।
          यह दूसरी तस्वीर आज के लेखकों एक्टिविस्टों की याद दिलाती है-महापंडित राहुल बाबा के हाथों में हथकड़ी।अगल बगल सिपाही।जमाना अंग्रेजीराज का।साजिश भूमिलूटरों की।
              बुद्ध की करुणा और शांति के हजारों पन्नों का बंडल खच्चर पर चार पर्यटन में नहीं,चार यात्राओं में लाने वाले बाबा जब भारत को नालंदा वापस करना चाह रहे थे तब भारत की सत्ता ने उन्हें किसान सत्याग्रही होने के कारण चोरी का आरोप लगाया,हथकड़ी पहनाई और सीवान छपरा हजारीबाग जेल की हवा खिलाई।
         यह हथकड़ी वाली ऑरिजिनल तस्वीर मुझे किसान आंदोलन पर सामग्री जमा करते हुए 1939 में प्रकाशित जनता की तीनमूर्ति लाइब्रेरी की फ़ाइल में मिली थी।किसी ने कैमरे से केप्चर कर लिया था।तब हाहाकार मचा था।
           ...फर्क और फर्क।बुद्धिजीवी के आंदोलन,संघर्ष,आवाज,शब्द,सत्याग्रह को तब भी बलवा,उत्पात,राष्ट्रद्रोह,हिंसा,चोरी,डकैती कहा जाता था और आज भी।राहुल बाबा का गुनाह था कि वे भोजपुरिया किसान के शोषण से मुक्ति के लिए चंपारण सत्याग्रह की अर्जी से आगे बढ़कर जमींदार-अंग्रेज द्वारा छीने गए खेत में जनमर्जी से ऊख कटवा रहे थे।जमीन किसकी।जोते उसकी।
         आज साढ़े तीन लाख आत्महत्या कर चुके किसानों के देश में किसी किसान की अस्थि की पूछ नहीं है।तब एक लेखक नागार्जुन खेत और जेल में साथ थे तो दूसरे लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी जनता में फ़ोटो खबर और लेख छाप रहे थे,तीसरे काशी प्रसाद जायसवाल,दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी आदि बाबा के कार्य का लेखा जोखा जनता तक पहुंचा रहे थे।आज किसान और किसान साहित्य की किसे चिंता है।
              राहुल बाबा ने बुद्ध से एक छोटी सी नाव ली थी और विचार भी।नाव नदी पार करने के लिए है रेत पर खींचने के लिए नहीं।आज पढ़े लिखे लोग भी धर्म और पाखंड की नौका कंधे पर लिये जीवित नरक की यात्रा में आनंदमय हैं।
       इसलिए किसान या तो विस्थापित हैं या हथकड़ी में या सल्फास और कपास की रस्सी के शिकार।हमें बुद्ध की दी गई नौका का सही उपयोग करना होगा।
         ✒✒✒✒✒✒✒
दिल्ली विश्वविद्यालय के आत्माराम सनातन धर्म कालेज में 125वीं राहुल सांकृत्यायन स्मृति गोष्ठी में जया सांकृत्यायन के अलावा मैनेजर पांडेय,मणीन्द्र नाथ ठाकुर,उर्मिलेश,गोपाल प्रधान,कमलनयन चौबे,प्रदीपकांत चौधरी आदि के विचार औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक समय की गहरी शिनाख्त करते हैं।जरूरत है राहुल जी की तरह मरकस बाबा बनने की।
         1944 में भागो नहीं दुनिया को बदलो किताब हिंदी में किसान और आमजन के राजनीतिक प्रशिक्षण की पहली जन किताब है।जन किताब इसलिए कि कई जन भाषाओँ की खिचड़ी हिंदी में वह किसान द्वारा व्यवस्था बदलाव के लिए लिखी गई है।
         राहुल जी अक्सर फुटपाथ पर दिखाई पड़ते हैं लेकिन विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में नहीं।जबाव साफ़ है।बुद्ध से लाये अंगार से डर।जरूरत है राहुल की पांडुलिपियों के उद्धार की।क्रूर और संकीर्ण राष्ट्रवाद के ज़माने में राहुल बाबा की यूरो केंद्रित आधुनिकता और औपनिवेशिकता विरोधी चेतना से रचित महान ग्रन्थ मध्य एशिया का इतिहास फिर से केंद्र में लाने की जरूरत है।बुद्ध की करुणा और मानवता से जुड़ने के लिए।
       प्रदीप कांत चौधरी की मांग जायज है कि क्यों नहीं आज यूरोप और अमेरिका को चुनौती देने के लिए राहुल सांकृत्यायन साऊथ सेंट्रल एशियन यूनिवर्सिटी की स्थापना भारत सरकार को करनी चाहिए।
      लेकिन जो सरकार जेएनयू जैसी शोध विचार की महान संस्था को स्लो और फ़ास्ट पोइजन से नष्ट कर रही है उससे हम और क्या क्या उम्मीद करें।
✒✒✒
रवीन्द्र की एक कविता है सोने की नाव।
          शाम का वक्त है।सुनहले बादलों से भरा आकाश।एक नाविक पश्चिम से सोने की नाव पानी भरे धनखेत से लेकर आ रहा है।किसान के सोने जैसी धान की फसल कटकर तैयार है।नाविक पूरा धान लाद लेता है।किसान कहता है कि मुझे भी ले चलो।जवाब मिलता-ए किसान।मेरी सोने की नौका तुम्हारे  सोने के धान से भर गई।अब तुम्हारे लिए जगह नहीं है।
           बुद्ध की नाव चोरी हो गई है।पूरब और पश्चिम दोनों दिशाओं के दो नाविक सोने का धान लूट रहे हैं।आखिरी खेप है।
       कोई आए और राहुल बाबा की तरह भिक्खु के वेश में नाव को थाम ले और किसान को बैठा ले।