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22 फ़रवरी, 2022

मातृभाषा,संवेदना और कविता का भविष्य क्या है

बहस के लिए
 ★रामाज्ञा शशिधर के कीबोर्ड से*
   वह अचानक मेरे कमरे में नई भाषा के झोंके की तरह आया।
    हाथ में लकड़ी और पटसन के ताने बाने से बने स्मृति चिह्न भेंट करने के लिए।वह चिह्न एक प्रतीक था-बांग्ला देश की मातृभाषा का।आज भी हिंदी विभाग के मेरे कमरे में सलामत है।वह हिंदी एमए का छात्र था जो ढाका से काशी हिंदी साहित्य का मर्मी व कर्मी होने आया था।
    वह उस दिन बांग्ला के बादल से मुझे हिंदी में भिंगा गया।
    भाषा की उन बूंदों में पानी था,पसीना था,खून था,मांस के टुकड़े थे,चीखें थीं,नारे थे,सत्याग्रह थे,गोलियां थीं,सेना के बलात्कारी हमले थे,इतिहास के घाव थे। उन बूंदों में अँगूठी में घुस जाने वाला मलमल का थान था,कटे हुए अंगूठे थे,टूटे हुए करघे थे,घण्टियाँ थीं,बाढ़ की हिलसा थी।उन बूंदों में बाउल था,चंडी थे,विद्यापति थे,नजरूल थे,रविन्द्र थे,तस्लीमा थी,सलाम आज़ाद थे।उन बूंदों में दुनिया का अकेला एक राष्ट्र था जो लंबी लड़ाई और कुर्बानी के बाद मातृभाषा की कोख से पैदा हुआ था।
      यह दुनिया जड़ों से कट गई है।लोकल और ग्लोबल के हाइब्रिड दायरे में कॉकटेल गिलास की तरह सज गई है।स्थानिक मातृभाषाओं की अस्मिता की रक्षा व्यक्तिवादी इच्छाओं और लालसाओं को सामुदायिक अचेतन की इच्छाओं में बदल कर ही की जा सकती है।

       


क्या दुनिया में मातृभाषा बनी रहेगी?
       मेरा जवाब है-हां।
       आप पूछेंगे,क्यों?
       इसलिए कि---
     जब तक सेक्स और सृजन का आधार स्त्री है तब तक  कोख की गतिविधि बनी रहेगी।शिशु के मशीनी उत्पादन से पहले तक।
      शिशु सृजन व मातृत्व ही वह चित्त और वृत्त  है जो परिवेश में लोकल भाषिक स्वरूप का गठन करेगा।

      यहां दो बातें गौरतलब हैं-
     एक,शिशु की चित्र से भाषा की यात्रा ही उसके बचपन की चेतना और व्यक्तित्व का गठन है।शिशु चेतना और शिशु व्यक्तित्व ही मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन का बीज है।इसलिए संवेदना के कारोबार के लिए
मातृभाषा का  वजूद रहेगा।
   दूसरी बात,चेतना की निर्मिति की यात्रा चित्र से भाषा की ओर है।यह नियम सीमित परिवार और व्यापक सभ्यता दोनों पर लागू होता है।चूंकि बुनियादी व स्थायी इमेज परिवार से अंकुरित होते हैं,इसलिए भाषा के केंद्र में मातृत्वमूलक परिवेश केंद्रीय भूमिका में है,रहेगा।
     दुनिया में संवेदना की उम्र उतनी ही है,जितनी मातृभाषा की उम्र है।
     मूलगामी संवेदना का गठन यौवन की सीखी भाषा या मशीनी लैंग्वेज से असम्भव है।
    कृत्रिम बौद्धिकता वाली मशीन और सेरोगेसी से क्षणिक सम्बन्ध संवेदना के विरुद्ध है,इसलिए यह संवेदना की भाषा के विरुद्ध है।
     मेरा मानना है कि मातृत्व और शिशु के नव सामुदायिक परिवेश की देशजता मातृभाषा में बड़ा बदलाव करेगी।इस तरह संवेदना के रूप बदलेंगे और क्षरित भी होंगे।क्षरण का कारण जितना कृत्रिम बौद्धिकता आश्रित रोबोटीकरण होगा,उतना ही पारिवारिक मातृत्व परिवेश का  विघटन।
    इस संदर्भ में मातृभाषा के सघन प्रायोगिक स्वरूप और संरचना के मद्देनजर कविता पर दो चार बातें कर लूं।
    यह मार्क्स का कम डिकोड किया हुआ कथन है कि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है।आचार्य रामचन्द्र  शुक्ल के कथन को बार बार डिकोड किया जाए कि क्यों कविता वाणी का विधान है।
  1.इस सवाल का सही जवाब अक्सर चलताऊ होता है कि कविता मातृभाषा में ही सम्भव है।आखिर मातृभाषा में ही क्यों सम्भव है?इसका व्यापक उत्तर हिंदी में इसलिए नहीं है क्योंकि यहां भाषा विज्ञान मर्चरी का लावारिश चिंगुरा हुआ मुर्दा है तथा मनोविश्लेषण भाषा के लिए एपेंडिक्स।
   2.वस्तुतः मनुष्यता मनुष्य के  चित्त का गहनतम भाव है। चित्त के अचेतन का निर्माण मातृत्व परिवेश से होता है,वह वाचिक यानी वाणी से हो सकता है।शिशु के मन का वाचिक संवेदनात्मक गठन ही उसके बाद के सृजन का बीज होता है।यही कारण है कि कविता में स्मृति के तत्व तरल रूप से विरचित होते हैं।
   3.कविता में मौजूद वासना और स्वप्न के तत्व भी शिशु संवेदना के बीज से बने वृक्ष,टहनी,पत्ती,फूल,पराग,फल और नए बीज हैं।मुझे लगता है कि सूर के उपहार वात्सल्य रस के नए सिरे से अध्ययन की जरूरत है।
   4.दुनिया की समस्त भाषाओं का आंतरिक ढांचा समरूप होता है। भाषा मानस की संज्ञानात्मक व्यवस्था है।चूंकि मातृभाषा भी भाषा है,इसलिए वह सार्वभौमिक स्तर पर समझी जाने वाली इकाई है।यही कारण है मातृभाषा में व्यक्त कविता सार्वभौमिक मनुष्यता की भाषा भी होती है।
5 जब तक मातृभाषा रहेगी,तबतक संवेदना रहेगी। संवेदना की उम्र के बराबर ही कविता की उम्र होगी।न केवल रचने की बल्कि समझने की उम्र भी एक जैसी होगी।
       आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर आत्माराम सनातन कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय में  मातृभाषाओं के कवियों के बीच मैं हिंदी कवि का प्रतिनिधि था।
     सोचता हूँ कि खड़ी बोली नहीं,खड़ी वाली हिंदी की कविता क्या मातृभाषा की कविता है?मैं अपनी अनेक भाषिक व राग रूपों वाली कविताओं के पाठ से इस निष्कर्ष पर हूँ कि जितनी उनमें मातृत्व की भाषिक संवेदना घुली है वे उतनी ही मनुष्यता के करीब की कला हैं।
     मुझे भरोसा है कि मातृभाषा,संवेदना और कविता तीनों सभ्यता के कठोर दमन से गुजरते हुए अपने अवशेष में जिंदा रहेंगी।
                   ■      ◆       ■

5 टिप्‍पणियां:

Kartikeya Shukla ने कहा…

आप के बातों से पूर्ण सहमत हूँ।ये समय की माँग है कि मातृभाषा के प्रति उन्मुख हुआ जाए।जिससे कि मानव मन और तन का सर्वांगीण विकास हो सके।

Priyavrat ने कहा…

मनुष्य जब भी विज्ञान की मदद से मानवता की उत्थान के लिए कुछ नया उपाय ढूंढ़ना चाहा तब अपनी चेतना से परे संवेदना को ढेस पहुंचाया। कला ही मनुष्य को मनुष्यता का बोध कराता है।

Ramajna Shashidhar ने कहा…

यह विकास सामुदायिक आकांक्षा की देशज यात्रा से ही सम्भव है।

Ramajna Shashidhar ने कहा…

कला मनुष्यता के बीज की धरती है।

Unknown ने कहा…

आपकी बात से पूर्णतय: सहमत हूँ! बहुत बढ़िया आपने लिखा है!
नए विचार, नई भाषा , नया शिल्प .... अद्भुत लेख है!