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29 नवंबर, 2010

१२ लाख बुनकर मौत के मुहाने पर:जब करघे हुए खामोश

२००५ में बनारस पहुँचते ही मैं कबीर के बुनकर वारिसों की तबाही,भूख और मौत का मंजर देखकर कारणों की खोज में लग गया.तब से ताने बाने में बिखराव बढता ही जा रहा है.मैंने २००६ में समयांतर में ‘होरी का भविष्य’ रिपोर्ताज में जिस तबाही और पस्तहाली का चित्रण किया है वह भी बुनकर वर्ग से ही जुड़ा था. दस्ताबेज से पहले जल्दी ही एक रिपोर्ताज दूंगा जो इस कलाकार समाज का भीतरी यथार्थ होगा. कस्बे की इस लड़ाई को वैश्विक बनाने में
आपकी भूमिका अहम है.--माडरेटर

साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई जरी है 



एक समाज बनारस के जुलाहों का है. यह समाज कई अर्थों में दुनिया के समाज से अलग है.कुछ लोग बनार्सिया हैं,कुछ लोग मऊवाले.फिर अलईपुरिया अलग हैं और मदनपुरिया अलग. खंड में से खंड अलग. जैसे रेशम की अधरंगी  पिंडी में से कई कई धागे निकले आ रहे हों.हर धागा दूसरे धागे से थोडा अलग दिखताहै,पर ऐसा है नहीं.चाहे बनरसिया हों या मऊवाले,अलईपुरिया हों या मदनपुरिया,हैं सब एक.
                                                          अब्दुल बिस्मिल्लाह, जाने माने हिंदी कथाकार
                                                         झीनी झीनी बीनी चदरिया  उपन्यास से


भूख,तंगहाली और पस्ती के खिलाफ बनारस के ५ लाख बुनकर फनकारों ने एक दिन के लिए अपने करघे खामोश रखे.एक आंकड़े के मुताबिक
५० हजार हैंडलूम और डेढ़ लाख पावरलूम की चुप्पी से करीब एक करोड का कारोबार बर्बाद हुआ.यह आंदोलन रेशम के धागों में चीन, भारत सरकार और स्थानीय कालेबाजारियों और साजिशन ८० फीसदी बढ़ोतरी के खिलाफ गददीदारों,व्यापारियों,सरदारों,महतों ,गिरस्तों और बुनकर फनकारों की ओर से था जो पीली कोठी के मैदान में साम्राज्यवाद-सरकार बनाम बुनकर के साथ व्यापारी बनाम बुनकर में भी बदल गया .बनारस के बुनकरों का मानना है कि उनके शोषण के कई  रूप बेइंतहा हैं. शोषण के स्थानीय और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दोनों ढांचों से एक साथ लड़ना होगा.
५ लाख बुनकरों का आंदोलन जिले में कई भागों में बंटकर लड़ाई लड़ता  रहा. जनसभा स्थल पर सभा के भीतर मजदूरी बढ़ाने के लिए बुनकर वर्ग का धरना होता रहा जिसने बाद में मंच पर ढाबा बोलते हुए हजारों बुनकरों से भरे मैदान को जन संघर्ष में बदल दिया.व्यापारियों के आश्वासन के बाद रेशम के मुद्दे पर बहस जारी रह सकी.
गौरतलब है कि भूमंडलीकरण की मार से देश में किसानो के साथ शिल्पकारों की भी हत्या आत्महत्या हो रही है.बनारस में सैकड़ों बुनकरों
की मौत,खून और बच्चे बेचना इसके प्रमाण हैं.तबाही अपने चरम दौर में है..यह उस सच का बहुत छोटा हिस्सा है.पिछले ६ महीने में रेशम के दाम में ४० से ८० फीसदी की बढोतरी हुई है जिसका एक बड़ा कारण सरकार द्वारा रेशम पर ३० फीसदी ड्यूटी कर लगना है.चीनी रेशम का भाव २२०० रू प्रति किलो से बढ़कर ३२०० रू प्रति किलो हो गया है. दूसरा कारण कालाबाजारियों की मनमानी है. तीसरा कारण बुनकरों को काम के साथ उचित मजदूरी नहीं मिलना है.इस कारण लगातार करघे खामोश होते जा रहे हैं और बुनकर तबाही के कगार पर हैं.यह हालात पूरे पूर्वांचल के लगभग १२ लाख बुनकरों के हैं.यह तबाही और संघर्ष तेज होने के आसार हैं.





दस्तकारी उद्योग की तबाही सरकार और साम्राज्यवाद का पहला एजेंडा है.

पोस्टर को ठीक से पढ़िए.
 व्यापारियों के खिलाफ बुनकर मजदूरों का एलान.

गद्दीदारों की सरकार विरोधी लडाई के साथ भी,
गद्दीदार की लूट के खिलाफ भी

यह बुनकर कबीर का वारिस कबीरुद्दीन है.
सैकड़ों मौतों के बाद गायब इस बुनकर का
कोई इस राष्ट्र-राज्य में पता बताए
.

अँधेरी तंग कोठरी में ताने बाने को सुलझाने वाले
 सूरज की तीखी रोशनी में बदलते हुए
.

               भूख से मरते कारीगर बुनकरों ने गद्दीदारों और साड़ी
व्यापारियों के खिलाफ मंच  कब्ज़ा करते
हुए मजदूरी में तुरंत इजाफे की मांग की
.

20 नवंबर, 2010

कविता घाट : सौ साल बाद छः काव्य-फूल

नागार्जुन,अज्ञेय,केदारनाथ अग्रवाल,शमशेर,फैज़ और गोपाल सिंह नेपाली हिन्दी-उर्दू कविता के छः  ऐसे सितारे हैं  जिनकी रोशनी में  लगातार हम चीजों को ढूँढने की,सवालों को सुलझाने की, लोकपरिया पर चलने की कोशिश करते रहे हैं.सौवें साल में  भारतीय जनता का दुःख और अँधेरा और तीखा हुआ है,साथ ही इन सितारों की जरूरत और बढ़ गई है.संवेदना और सरोकार के  पांच फूल पेश हैं जिनकी खुशबू  और ताज़गी और स्पर्शी हो गई है.-माडरेटर 
 उनको  प्रणाम
          नागार्जुन


जो नहीं हो सके पूर्ण–काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम ।  

कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए
उनको प्रणाम !

जो छोटी–सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि–पार;
मन की मन में ही रही¸ स्वयं
हो गए उसी में निराकार
उनको प्रणाम !

जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह–रह नव–नव उत्साह भरे;
पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे
उनको प्रणाम !

एकाकी और अकिंचन हो
जो भू–परिक्रमा को निकले;
हो गए पंगु, प्रति–पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले
उनको प्रणाम !

कृत–कृत नहीं जो हो पाए;
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल
उनको प्रणाम !

थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ;
या जन्म–काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहांत हुआ
उनको प्रणाम !

दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति–मंत ?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत
उनको प्रणाम !

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर–चूर
उनको प्रणाम !
साँप !
अज्ञेय 


साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना--
विष कहाँ पाया?
मजदूर का जन्म 
केदारनाथ अग्रवाल 










एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
हाथी सा बलवान,
जहाजी हाथों वाला और हुआ !
सूरज-सा इंसान,
तरेरी आँखोंवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ!

माता रही विचार
अँधेरा हरनेवाला और हुआ !
दादा रहे निहार
सबेरा करनेवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !
जनता रही पुकार
सलामत लानेवाला और हुआ !

सुन ले री सरकार!
कयामत ढानेवाला और हुआ !!
एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !

काल तुझसे होड़ है मेरी
शमशेर बहादुर सिंह 










काल,
तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूं
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो-
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं- तेरे भी, ओ' 'काल' ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !

जो मैं हूं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है...

क्रांतियां, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं ।

मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है
इंतेसाब
फैज़  अहमद  फैज़   







आज के नाम
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म कि है ज़िन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फ़ा
ज़र्द पत्तों का बन
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द का अंजुमन जो मेरा देस है
किलर्कों की अफ़सुर्दा जानों के नाम
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्ट-मैंनों के नाम
टांगेवालों के नाम
रेलबानों के नाम
कारख़ानों के भोले जियालों के नाम
बादशाह्-ए-जहाँ, वालि-ए-मासिवा, नएबुल्लाह-ए-फ़िल-अर्ज़, दहकाँ के नाम

जिस के ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए
जिस की बेटी को डाकू उठा ले गए
हाथ भर ख़ेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली है
दूसरी मालिये के बहाने से सरकार ने काट ली है
जिस के पग ज़ोर वालों के पाँवों तले
धज्जियाँ हो गई हैं

उन दुख़ी माँओं के नाम
रात में जिन के बच्चे बिलख़ते हैं और
नींद की मार खाए हुए बाज़ूओं से सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों से बहलते नहीं

उन हसीनाओं के नाम
जिनकी आँखों के गुल
चिलमनों और दरिचों की बेलों पे बेकार खिल-खिल के
मुर्झा गये हैं
उन ब्याहताओं के नाम
जिनके बदन
बेमोहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उकता गए हैं
बेवाओं के नाम
कतड़ियों और गलियों, मुहल्लों के नाम
जिनकी नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों
को आ-आ के करता है अक्सर वज़ू
जिनकी सायों में करती है आहो-बुका
आँचलों की हिना
चूड़ियों की खनक
काकुलों की महक
आरज़ूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू

पड़नेवालों के नाम
वो जो असहाब-ए-तब्लो-अलम
के दरों पर किताब और क़लम
का तकाज़ा लिये, हाथ फैलाये
पहुँचे, मगर लौट कर घर न आये
वो मासूम जो भोलेपन में
वहाँ अपने नंहे चिराग़ों में लौ की लगन
ले के पहुँचे जहाँ
बँट रहे थे घटाटोप, बे-अंत रातों के साये
उन असीरों के नाम
जिन के सीनों में फ़र्दा के शबताब गौहर
जेलख़ानों की शोरीदा रातों की सर-सर में
जल-जल के अंजुम-नुमाँ हो गये हैं

आनेवाले दिनों के सफ़ीरों के नाम
वो जो ख़ुश्बू-ए-गुल की तरह
अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गये हैं

मेरा धन है स्वाधीन क़लम
गोपाल सिंह नेपाली 









राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्‍नहार, लाती चोरों से छीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम

तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन क़लम
मेरा धन है स्वाधीन क़लम





12 नवंबर, 2010

कविता की नई भूमिका

        कविता की नई भूमिका


बनारस में आयोजित युवा कवि संगम कई सवाल छोड गया है.

क्या हिंदी कविता पुरानी लीक पर ही चल रही है? कविता में

पुरानी लीक के अवशेष-चिह्न हैं या वह अपनी काया और माया

को पूरे तौर पर बदल रही है? क्या बाजार से बाहर मौजूद कही

जानेवाली हिंदी कविता सचमुच ’ग्लोबल’ की ताकत संरचना से

मुक्त है या उसका नवोन्मेषी हिस्सा ’वर्चुअल ज्ञान क्रांति’ के पैटर्न

का अनुसरण कर रही है? हिंदी कविता के एक नए हिस्से में कविता होने के

अलावा ऐसा क्या है जिसे हिंदी समाज और संस्कृति से अभिन्न माना जाए?

क्या अब कविता देश से परे केवल अधूरे काल की अवधारणा पर

अपना विकास करेगी? क्या कविता भूगोल से बाहर अपना अस्तित्व

बनाएगी और अतीत से सर्वथा मुक्त होकर केवल भविष्य में दोनों

पांव रखेगी? क्या कविता केवल ’स्व’ या स्वविहीन सूचनास्थूलता की क्राफ़्ट

भर बनेगी ? क्या कलात्मकता और लोकप्रियता के सह-अस्तित्व का संघर्ष और

सरोकार अब गैरजरूरी है? क्या कविता में कैसे कहा जा रहा है,केवल वही अहम

होगा या कैसे क्या कहा जा रहा है इसका विकास होगा? क्या कविता प्रौद्योगिकी

से पूर्णत संरचित स्वरूप लेगी या दोनों के द्वंद्व से कुछ नया बनेगा? अंतत कविता

कहां से आएगी,किस रूप में यथार्थ भार क वहन करेगी और किसके लिए होगी?

ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज की पीढी की कविता से पूछने की जिज्ञासा है.

07 नवंबर, 2010

कविता घाट : ओबामा! ओ वाम!

ओबामा ओबामा
वाम लो वाम लो
तेरे विरोधी जो
सारे हैं वाम
रूस गया,इराक गया
गया अफ़गानिस्तान
धड्धड धराम


ओबामा ओबामा
बाम दो बाम लो
दोनों को दर्द बहुत
झंडू-शंकर ब्रांड हो


कटोरा-छाप बाम लो
डालर छाप बाम दो
पेट्रोलियम बाम लो
न्यूक्लियर बाम दो
जंगल-बूटी बाम लो
ग्रीन हंट बाम दो
नदिया नीलाम लो
पेप्सी कोला बाम दो
संसद गुलाम लो
व्हाइट हाउस बाम दो
स्टेच्यू लिबर्टी बाम दो


ओबामा ओबामा
हम तेरे पचपौनिया
हम तेरे खानसामा
नई जमींदारी की रैयत हैं हम
वारह्वीं सदी की पटरानी
अठारहवीं सदी की सती वामा
घर बाहर दोनों का हमसे ही काम लो


ओबामा ओबामा
दाम लो दाम लो
आलू का दाम लो
टमाटर का दाम लो 
लाख बीटी बीज दो
दो लाख किसान लो
ग्राम,सेवाग्राम लो
नया विश्वग्राम दो
तू ही मुखिया,तू ही सर्पंच
शेष सारा गांव है असभ्य चरमपंथ
खाज-खुजली,गुप्त रोगी
साबुन हमाम दो


ओबामा,ओबामा
बम दो बम दो
मंदी का मौसम है
वाशिंगटन बेदम है
रोजगार कम है
चारा नरम है
बारूद गरम है


बम दो बम दो
बम बम बराम
नागासाकी वियतनाम
काम तमाम
सभ्यता की नई शाम
ओबामा! ओ वाम!

05 नवंबर, 2010

कविता घाट:नया आपातकाल

(बनारसी पनेरी छन्नूलाल चौरसिया के लिए)
रामाज्ञा शशिधर

मगही पान पर कत्था चूना फेरते हुए
बात कतरता जमा देता है छन्नूलाल
कि डाक् साब अजब का था वह साल
जब दीवार लांघकर आया था आपके पास
जर्दा पान सुपारी के साथ
क्या गजब की लत थी जनाब
डाक् साब घुलाते हुए जीभ को होठ पर फेरते हैं

आपाताकाल  सबसे पहले जीभ और होठ पर ही उतरता है

जर्दा सुपारी किमाम फड़क रहे हैं
बीरे पर सवारी कसने के लिए
आपातकाल  में खास खुशबू भरने के लिए

घेरेबंदी में और भी लहर भरता है खुशबू का असर

डाक् साब कचरते हुए फरमाते हैं
कि क्या बताएं डाक् साहब
क्या जमाना था कि हम भी थे 
विरोध का जुनून इतना था कि
चहारदीवारी के उस पार से हासिल कर लेते  थे  पान
लाल करते रहते थे  सड़क सीढ़ियां और दीवार

विरोध करने के लिए जरूरी नहीं
कि सदा खून के छींटे ही उड़ाए जाएं

छन्नूलाल शान से बढ़ाता हाथ
डाक् साब गौरव से लबरेज थाम लेते  हाथ
सड़क पर शुरु होता नया घमासान

ऐसे भी लड़ी जातीं इतिहास की लड़ाइयां

चूना ललकारता कि तेरे लाल के मार्क्सवाद से
मेरी सफेदी का गांधीवाद ज्यादा तगड़ा है संगदिल
देख तेरे लाल की लाली में मेरा कितना है हाथ

कत्था शरम से हो जाता और लाल
याद कर आपात्काल

गाल गुलाब और शरम लाल झंडी की तरह क्यों होता हाय!

मुख के बख्तरबंद में पक्ष और विपक्ष की
तेज होती जाती
हिंसा अहिंसा और प्रतिहिंसा की काररवाई
नए सिरे से जारी होता
दांतों के फासिज्म के खिलाफ जीभ का आंदोलन
चिड़ियाघर के तालाब में मेमना और घड़ियाल

‘‘पिपुल हैव नाट गन इन द हैंड्स’’

इधर देखिए 120 नंबर का कमाल कि
महक कितनी मारक है कि बीएचयू
और जेएनयू और डीयू और अलीगढ़
और इलाहाबाद और पटना और भोपाल
सबको सराबोर किए हुए है
झूम रहे हैं मंच और मचान

सडक की नजर में संसद चांदी का पीकदान

डाक साहब को घुलावट में तरावट के लिए
फिर चाहिए चूना सुपारी और किमाम
सुपारी है कि जेपी सिमेंट सी पहल्ो कड़क रहती
फिर मुलायम बुरादे में बदल जाती
जीभ को कुछ ज्यादा ही थकाती, लड़खड़ाती

किमाम है कि भर देता फिजा में
मस्ती हसरत और रवानी
जैसे लोहिया की पोथी से
निकल रही हो अमर-वाणी

लोहे की गेंद में पगुरा चुका प्रतिरोध
रबड़गोली आंसू गैस जल फव्वारे का जवाब
बूट और बंदूक का सारा हिसाब
-पिच् पिच् पिच्...
थुर्र थुर्र थू...

और अब जो शुरु होगा
नई नस्ल से संवाद
होगा बस नया आपातकाल