२००५ में बनारस पहुँचते ही मैं कबीर के बुनकर वारिसों की तबाही,भूख और मौत का मंजर देखकर कारणों की खोज में लग गया.तब से ताने बाने में बिखराव बढता ही जा रहा है.मैंने २००६ में समयांतर में ‘होरी का भविष्य’ रिपोर्ताज में जिस तबाही और पस्तहाली का चित्रण किया है वह भी बुनकर वर्ग से ही जुड़ा था. दस्ताबेज से पहले जल्दी ही एक रिपोर्ताज दूंगा जो इस कलाकार समाज का भीतरी यथार्थ होगा. कस्बे की इस लड़ाई को वैश्विक बनाने में
आपकी भूमिका अहम है.--माडरेटर
साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई जरी है |
एक समाज बनारस के जुलाहों का है. यह समाज कई अर्थों में दुनिया के समाज से अलग है.कुछ लोग बनार्सिया हैं,कुछ लोग मऊवाले.फिर अलईपुरिया अलग हैं और मदनपुरिया अलग. खंड में से खंड अलग. जैसे रेशम की अधरंगी पिंडी में से कई कई धागे निकले आ रहे हों.हर धागा दूसरे धागे से थोडा अलग दिखताहै,पर ऐसा है नहीं.चाहे बनरसिया हों या मऊवाले,अलईपुरिया हों या मदनपुरिया,हैं सब एक.
अब्दुल बिस्मिल्लाह, जाने माने हिंदी कथाकार
झीनी झीनी बीनी चदरिया उपन्यास से
भूख,तंगहाली और पस्ती के खिलाफ बनारस के ५ लाख बुनकर फनकारों ने एक दिन के लिए अपने करघे खामोश रखे.एक आंकड़े के मुताबिक
५० हजार हैंडलूम और डेढ़ लाख पावरलूम की चुप्पी से करीब एक करोड का कारोबार बर्बाद हुआ.यह आंदोलन रेशम के धागों में चीन, भारत सरकार और स्थानीय कालेबाजारियों और साजिशन ८० फीसदी बढ़ोतरी के खिलाफ गददीदारों,व्यापारियों,सरदारों,महतों ,गिरस्तों और बुनकर फनकारों की ओर से था जो पीली कोठी के मैदान में साम्राज्यवाद-सरकार बनाम बुनकर के साथ व्यापारी बनाम बुनकर में भी बदल गया .बनारस के बुनकरों का मानना है कि उनके शोषण के कई रूप बेइंतहा हैं. शोषण के स्थानीय और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दोनों ढांचों से एक साथ लड़ना होगा.
५ लाख बुनकरों का आंदोलन जिले में कई भागों में बंटकर लड़ाई लड़ता रहा. जनसभा स्थल पर सभा के भीतर मजदूरी बढ़ाने के लिए बुनकर वर्ग का धरना होता रहा जिसने बाद में मंच पर ढाबा बोलते हुए हजारों बुनकरों से भरे मैदान को जन संघर्ष में बदल दिया.व्यापारियों के आश्वासन के बाद रेशम के मुद्दे पर बहस जारी रह सकी.
गौरतलब है कि भूमंडलीकरण की मार से देश में किसानो के साथ शिल्पकारों की भी हत्या आत्महत्या हो रही है.बनारस में सैकड़ों बुनकरों
की मौत,खून और बच्चे बेचना इसके प्रमाण हैं.तबाही अपने चरम दौर में है..यह उस सच का बहुत छोटा हिस्सा है.पिछले ६ महीने में रेशम के दाम में ४० से ८० फीसदी की बढोतरी हुई है जिसका एक बड़ा कारण सरकार द्वारा रेशम पर ३० फीसदी ड्यूटी कर लगना है.चीनी रेशम का भाव २२०० रू प्रति किलो से बढ़कर ३२०० रू प्रति किलो हो गया है. दूसरा कारण कालाबाजारियों की मनमानी है. तीसरा कारण बुनकरों को काम के साथ उचित मजदूरी नहीं मिलना है.इस कारण लगातार करघे खामोश होते जा रहे हैं और बुनकर तबाही के कगार पर हैं.यह हालात पूरे पूर्वांचल के लगभग १२ लाख बुनकरों के हैं.यह तबाही और संघर्ष तेज होने के आसार हैं.
दस्तकारी उद्योग की तबाही सरकार और साम्राज्यवाद का पहला एजेंडा है. |
पोस्टर को ठीक से पढ़िए. व्यापारियों के खिलाफ बुनकर मजदूरों का एलान. |
गद्दीदारों की सरकार विरोधी लडाई के साथ भी, गद्दीदार की लूट के खिलाफ भी |
यह बुनकर कबीर का वारिस कबीरुद्दीन है. सैकड़ों मौतों के बाद गायब इस बुनकर का कोई इस राष्ट्र-राज्य में पता बताए. |
अँधेरी तंग कोठरी में ताने बाने को सुलझाने वाले सूरज की तीखी रोशनी में बदलते हुए. |
भूख से मरते कारीगर बुनकरों ने गद्दीदारों और साड़ी व्यापारियों के खिलाफ मंच कब्ज़ा करते हुए मजदूरी में तुरंत इजाफे की मांग की . |