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05 नवंबर, 2010

कविता घाट:नया आपातकाल

(बनारसी पनेरी छन्नूलाल चौरसिया के लिए)
रामाज्ञा शशिधर

मगही पान पर कत्था चूना फेरते हुए
बात कतरता जमा देता है छन्नूलाल
कि डाक् साब अजब का था वह साल
जब दीवार लांघकर आया था आपके पास
जर्दा पान सुपारी के साथ
क्या गजब की लत थी जनाब
डाक् साब घुलाते हुए जीभ को होठ पर फेरते हैं

आपाताकाल  सबसे पहले जीभ और होठ पर ही उतरता है

जर्दा सुपारी किमाम फड़क रहे हैं
बीरे पर सवारी कसने के लिए
आपातकाल  में खास खुशबू भरने के लिए

घेरेबंदी में और भी लहर भरता है खुशबू का असर

डाक् साब कचरते हुए फरमाते हैं
कि क्या बताएं डाक् साहब
क्या जमाना था कि हम भी थे 
विरोध का जुनून इतना था कि
चहारदीवारी के उस पार से हासिल कर लेते  थे  पान
लाल करते रहते थे  सड़क सीढ़ियां और दीवार

विरोध करने के लिए जरूरी नहीं
कि सदा खून के छींटे ही उड़ाए जाएं

छन्नूलाल शान से बढ़ाता हाथ
डाक् साब गौरव से लबरेज थाम लेते  हाथ
सड़क पर शुरु होता नया घमासान

ऐसे भी लड़ी जातीं इतिहास की लड़ाइयां

चूना ललकारता कि तेरे लाल के मार्क्सवाद से
मेरी सफेदी का गांधीवाद ज्यादा तगड़ा है संगदिल
देख तेरे लाल की लाली में मेरा कितना है हाथ

कत्था शरम से हो जाता और लाल
याद कर आपात्काल

गाल गुलाब और शरम लाल झंडी की तरह क्यों होता हाय!

मुख के बख्तरबंद में पक्ष और विपक्ष की
तेज होती जाती
हिंसा अहिंसा और प्रतिहिंसा की काररवाई
नए सिरे से जारी होता
दांतों के फासिज्म के खिलाफ जीभ का आंदोलन
चिड़ियाघर के तालाब में मेमना और घड़ियाल

‘‘पिपुल हैव नाट गन इन द हैंड्स’’

इधर देखिए 120 नंबर का कमाल कि
महक कितनी मारक है कि बीएचयू
और जेएनयू और डीयू और अलीगढ़
और इलाहाबाद और पटना और भोपाल
सबको सराबोर किए हुए है
झूम रहे हैं मंच और मचान

सडक की नजर में संसद चांदी का पीकदान

डाक साहब को घुलावट में तरावट के लिए
फिर चाहिए चूना सुपारी और किमाम
सुपारी है कि जेपी सिमेंट सी पहल्ो कड़क रहती
फिर मुलायम बुरादे में बदल जाती
जीभ को कुछ ज्यादा ही थकाती, लड़खड़ाती

किमाम है कि भर देता फिजा में
मस्ती हसरत और रवानी
जैसे लोहिया की पोथी से
निकल रही हो अमर-वाणी

लोहे की गेंद में पगुरा चुका प्रतिरोध
रबड़गोली आंसू गैस जल फव्वारे का जवाब
बूट और बंदूक का सारा हिसाब
-पिच् पिच् पिच्...
थुर्र थुर्र थू...

और अब जो शुरु होगा
नई नस्ल से संवाद
होगा बस नया आपातकाल 

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