नदी अब रेत का कच्छप अवतार है! |
हर साल जनवरी में १९ को रेत शिल्प में बदलती है. बनारस की दृश्यकला के सैकड़ों छात्र इस शिल्प मेले के कूचीकार-करणीकार होते हैं.भूगोल होता है गंगा के बहरी अलंग का इलाका। कैनवास रेत का मैदान होता है.दूर तक फैला हुआ रेतीला पेपर,कार्डबोर्ड।
करणी,कुदाल,छलनी,चाकू,हाथ,पैर सब कूचीमय हो जाते हैं. एक दिन के लिए मीडिया की विराट भूख का यह मेला सुस्वादू आहार होता है.पहले विहार,फिर कैप्चर हुए दृश्यों का आहार।
मानो धरती की देह के जख्म और फोड़े आकाश तक फ़ैल कर अपना कसक सुनाना चाहते हो.सिर्फ एक दिन १९ को पुरखे मुर्दे मोक्ष के लिए हाहाकार करते हैं और जीवित वंशज रेत में नदी को शामिल कर तर्पण त्योहार करते हैं.
नदी एक बारीक शिल्पकार है. वह रेत को जीवन दे सकती है,मृत्यु आलेख में बदल सकती है. उसे पता है कि उसकी रेत की कोख से खरबूजे,माफिया,घर,रेगिस्तान,ऊँट,बबूल और कलाकार सब पैदा हो सकते हैं,एक दूसरे के शत्रु और मित्र भी बन सकते हैं.
नदी रेत की माँ है,एक सातमस्सू बच्चे की मरी अधमरी हुई माँ.
ऐसा क्यों है कि हर बार रेत एक मरियल स्त्री की चीख,एक गुलाम स्त्री की पुकार,मठ गढ़ के घडियाली जबड़े में फंसी स्त्री के लोथड़े,एक मरी हुई स्त्री के मछलियाई देह,एक माँ,एक भारत माता ,एक बेटी,एक भारतीय नारी,एक उदास-हताश पोटली,एक स्वादहीन रंगहीन,गंधहीन,जीवनहीन सृष्टि कथा बनकर
ही काशी की सभ्यता उकेरती है.
नदी जानती है कि अब भी स्त्री रेत है,इसलिए रेत स्त्रीमय शिल्पगाथा.
नदी की पीठ पर रेत लाश की तरह थी.
रेत की लाश पर वर्षों बाद कुछ कौए दिख गए.
कहते हैं अब मरी खाकर कौए मर जाते हैं.
जीवित दिखे कौए यानी रेत मरी नहीं थी.
फिर क्या था जो उभरा हुआ था नदी में?
नदी की पीठ,रेत की देह या सिर्फ कौए..
अभी जानिये!नदी एक कुशल शिल्पकार है. |
पहचानिए!नदी एक सुन्दर शिल्प है! |
रेत की जुल्फ घटा मांगती है |
काश ! यह मुड़ती उस तरफ जिधर तेरा शहर है. |
हुश्न के कातिल ? |
पहले नैना खाइयो! |
परंपरा एक मगरमच्छ का नाम है |
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