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16 जनवरी, 2014

कविता घाट:नया आपातकाल

(बनारसी पनेरी छन्नूलाल चौरसिया के लिए)
रामाज्ञा शशिधर

मगही पान पर कत्था चूना फेरते हुए
बात कतरता जमा देता है छन्नूलाल
कि डाक् साब अजब का था वह साल
जब दीवार लांघकर आया था आपके पास
जर्दा पान सुपारी के साथ
क्या गजब की लत थी जनाब


डाक् साब घुलाते हुए जीभ को होठ पर फेरते हैं

आपात्काल सबसे पहले जीभ और होठ पर ही उतरता है

जर्दा सुपारी किमाम फड़क रहे हैं
बीरे पर सवारी कसने के लिए
आपात्काल में खास खुशबू भरने के लिए

घ्ोरेबंदी में और भी लहर भरता है खुशबू का असर

डाक् साब कचरते हुए फरमाते हैं
कि क्या बताएं डाक् साहब
क्या जमाना था कि हम भी थ्ो
विरोध का जुनून इतना था कि
चहारदीवारी के उस पार से हासिल कर ल्ोते थ्ो पान
लाल करते रहते थ्ो सड़क सीढ़ियां और दीवार

विरोध करने के लिए जरूरी नहीं
कि सदा खून के छींटे ही उड़ाए जाएं

छन्नूलाल शान से बढ़ाता हाथ
डाक् साब गौरव से लबरेज थाम ल्ोते हाथ
सड़क पर शुरु होता नया घमासान

ऐसे भी लड़ी जातीं इतिहास की लड़ाइयां

चूना ललकारता कि तेरे लाल के मार्क्सवाद से
मेरी सफेदी का गांधीवाद ज्यादा तगड़ा है संगदिल
देख तेरे लाल की लाली में मेरा कितना है हाथ

कत्था शरम से हो जाता और लाल
याद कर आपात्काल

गाल गुलाब और शरम लाल झंडी की तरह क्यों होता हाय!

मुख के बख्तरबंद में पक्ष और विपक्ष की
तेज होती जाती
हिंसा अहिंसा और प्रतिहिंसा की काररवाई
नए सिरे से जारी होता
दांतों के फासिज्म के खिलाफ जीभ का आंदोलन
चिड़ियाघर के तालाब में मेमना और घड़ियाल
‘‘पिपुल हैव नाट गन इन द हैंड्स’’

इधर देखिए 120 नंबर का कमाल कि
महक कितनी मारक है कि बीएचयू
और जेएनयू और डीयू और अलीगढ़
और इलाहाबाद और पटना और भोपाल
सबको सराबोर किए हुए है
झूम रहे हैं मंच और मचान

सडक की नजर में संसद पीतल का पीकदान

डाक साहब को घुलावट में तरावट के लिए
फिर चाहिए चूना सुपारी और किमाम
सुपारी है कि जेपी सिमेंट सी पहल्ो कड़क रहती
फिर मुलायम बुरादे में बदल जाती
जीभ को कुछ ज्यादा ही थकाती, लड़खड़ाती

किमाम है कि भर देता फिजा में
मस्ती हसरत और रवानी
जैसे लोहिया की पोथी से
निकल रही हो अमर-वाणी

लोहे की गेंद में पगुरा चुका प्रतिरोध
रबड़गोली आंसू गैस जल फव्वारे का जवाब
बूट और बंदूक का सारा हिसाब
-पिच् पिच् पिच्...
थुर्र थुर्र थू...

और अब जो शुरु होगा
नई नस्ल से संवाद
होगा बस नया आपातकाल 





बनारसीदास

रामाज्ञा शशिधर



किसी दिन

चांद तुम्हारे चूल्हे में आकर

कंडे सा सुलग जाए



किसी दिन

सूरज तुम्हारी जीभ पर

आइस्क्रीम सा पिघल जाए



किसी दिन

दुनिया के सारे पेशाबघरों में

चींटियों की धार बरसने लगे

और ग्लोब पर खरबों कतारों में फैल जाए



एक दिन

शुतुरमुर्ग सचमुच उठे

और सितारों सहित आसमान को उठाकर

दूसरे ब्रह्मांड पर रख आए



एक दिन

मधुमक्खियां आग उगलने लगे

कुत्तों की लार से जल्ोबी पकने लगे

छछूंदर की आवाज से राग मल्हार झरने लगे

मिट्टी से खरबूज

मार्बल से महबूब बनने लगे



एक दिन

गिरगिट गिलहरी में

गिलहरी ह्वाइट हाउस में

ह्वाइट हाउस सर्दी जुकाम में बदल जाए



भई बनारसीदास

क्या तब मानोगे कि दुनिया बदल रही है!





मुखिया जी

(प्रिय जनकवि कैलास गौतम के लिए)

रामाज्ञा शशिधर



मुखिया जी कुछ भी न बदला

बदल गए बस आप



जब से आप हुए जनसेवी

लोकतंत्र्ा कुछ और फरेबी

जात धरम की नई जल्ोबी

हाट बाट है ल्ोवी ल्ोवी

हाथ न सूझे रात है कैसी

तीन ताल धुन सात है कैसी



पूरी गाड़ी ख्ोंचे में है

निकल गए बस आप



न्याय समिति उत्थान सभाएं

बुश ब्ल्ोयर हैं दाएं बाएं

रात रात चलती कक्षाएं

किसे उठाएं किसे गिराएं

एक कथा में सौ मुद्राएं

हर मुद्रा की सौ शाखाएं



चौसर के सब मंत्र्ाी मर गए

अमर हुए बस आप



प्राइवेट पब्लिक मिश्रित सेक्टर

आरक्षण के सारे फेक्टर

वर्ल्ड बैंक एनजीओ चैप्टर

लाल कार्ड का मेसी ट्रैक्टर

ठेका पट्टा लूट दलाली

फिर भी दांतिल आंत है खाली



रायल संग मुर्गा काकरेली

निगल गए बस आप



मैकाल्ो की नई मनीषा

आपकी खातिर बुद्ध और ईसा

जाप लिये फुसफुस चालीसा

बिछा रही पत्तल पर शीशा

गिरे लाश न भरे गवाही

मूर्ति निमित्त धन करे उगाही



ग्राम बदर हो गया ससिधरवा

ग्राम रतन हुए आप





सिमरिया

रामाज्ञा शशिधर



सिम सिम तू खुल जा

रक्तरंजित धुल जा



समर-समर मंद हो

मरा-मरा बंद हो



रिया रिया रिहा

रेरे क्यों, क्या किया



यार मसि का न वह

जहां जाए कविता दह





जिल्द खोलक रूस है

रामाज्ञा शशिधर



पुस्तक का मेला है

हजपुरिया केला है



ल्ोखक जी भारी हैं

रचना अधिकारी हैं



इतने लजीज हैं

हर दिल अज़ीज हैं



आसन सिंहासन है

आसीसी भाषण है



लोकार्पण घूस है

जिल्द खोलक रूस है



भाषा दालचीनी है

खुशबू बहुत भींनी है



गांधी मैदान है

सबको क्षमादान है