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08 जनवरी, 2014

यह हिन्दी आलोचना का हड़ताल युग है


यह टिपण्णी परिकथा के युवा आलोचना विशेषांक के परिचर्चा  स्तम्भ में भी छपी है.रामाज्ञा शशिधर

1. मैं पिछल्ो दो दशक की युवा हिन्दी आलोचना को हिन्दी आलोचना का हड़ताल युग मानता हूँ। जहाँ रचना समय के गति और द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश करती हुई लगातार सक्रिय है, आलोचना समय और रचना से जरूरी मांगों के कारण नहीं अपनी ऐतिहासिक पस्ती और वैचारिक समझौतापरस्ती के कारण कर्म का मैदान छोड़कर हड़ताली मुद्रा में दिख रही है। मैं नब्बे के दशक से पूर्व की आलोचना को पड़ताली आलोचना मानता हूँ। इस मध्य आलोचना की एक नई प्रवृत्ति भी विकसित हुई है जिसे करताली आलोचना कहा जा सकता है।
विगत दो दशक के भारतीय समाज का समय सभ्यता के इतिहास में अभूतपूर्व उथल-पुथल का, नये और पुराने मूल्यों के संघर्ष का, पुराने समाज और संस्कृति के ध्वस्त होने का, संसदीय लोकतंत्र्ा का बाजार में तब्दील होने और चुक जाने का, आधुनिकता और विकास के नाम पर प्रकृति, हाशिए के मनुष्य, ख्ोतिहर जीवन को सर्वनाश के कगार पर पहुँचा देने का, बहुसंख्यक तानाशाही के उन्माद और आतंक से अल्पसंख्यक समुदाय के लगातार भयाक्रांत, मानसिक अलगाव और अस्तित्व के संकट में धंसते चल्ो जाने का, लगातार उभरते मध्यवर्ग की लालसा और भोग के विस्तारीकरण का तथा समाज के एक बड़े हिस्से में फैल रहे असंतोष, घृणा, निराशा, आक्रोश और विरोध का है। नवसाम्राज्य की लूट के अश्वमेध अभियान में राजसत्ता केवल कारपोरेट पूँजी के संरक्षक की भूमिका निभा रही है तथा इस लूट अभियान में प्राकृतिक और मानवीय संसाधन का अपहरण करने की प्रक्रिया में उठे जन प्रतिरोध को बर्बर हिंसा से दबाने का काम कर रही है।
युवा रचनात्मक ल्ोखन इन प्रक्रियाओं और परिस्थितियों से विधा की ताकत और सीमा के साथ से जुड़ी हुई है। उपन्यास, कविता और कहानी तीनों विधाओं में हमारे समय और समाज के अन्तर्विरोधों की शिनाख्त है। पिछल्ो दो दशक की रचनाशीलता में मौजूद जीवन मूल्य, कला मूल्य और विश्व दृष्टि को परखने के लिए सर्वाधिक साहित्य और समाज के बीच सक्रिय बाजार के बहुआयामी हस्तक्ष्ोप की पड़ताल करनी चाहिए। बाजार के युगान्तरकारी हस्तक्ष्ोप ने न केवल जीवन मूल्य की पारम्परिक संरचना को ध्वस्त कर दिया है बल्कि रचनाशीलता के पुराने सृजन मूल्यों को भी प्रश्नांकित कर दिया है। मुझे लगता है कि उपन्यास, कविता, कहानी तीनों बाजार से गहरे प्रभावित हैं तथा कई बार बाजार का विरोध करते हुए भी बाजार के साथ खड़े दिखते हैं। उपन्यास ने पिछल्ो दो दशक में साम्प्रदायिकता और भूमंडलीकरण का सर्वाधिक प्रतिरोध किया है वहीं उसकी कलात्मकता पर बाजार, परदा और सतही पत्र्ाकारिता का इतना गहरा असर है कि वह कला कम, दस्तावेज ज्यादा दिखता है। कुछ उपन्यास टिकाऊ भी आए हैं।
दो दशक की युवा कविता के बारे में कहा जाता है कि वह सच्चे अर्थों में बाजार के खिलाफ खड़ी है। मुझे लगता है यह अर्धसत्य है। युवा कविता के बड़े हिस्से की निर्मिति में बाजार की क्राफ्टिंग, मेन्युफैक्चरिंग, विखण्डनमूलक भाषिक संरचना, कविता की भारतीय परम्परा से कटा रूपतंत्र्ा, लिजालिजा नास्टेलजिक लोकसंस्कृति, वैयक्तिक अवसाद, गद्यात्मक भाषाई कौशल, भाषा और रूपात्मकता को अन्तर्वस्तु में तब्दील कर देने का चातुर्य, जनतंत्र्ाीकरण एवं स्वतंत्र्ाता के नाम पर कारपोरेट भोगवाद को वासनात्मक अभिव्यक्ति देना, ऐन्द्रिक अनुभव एवं ज्ञानात्मक संवेदना के स्थान पर विमर्शमूलक ज्ञान को कविताई में ढालने की कोशिश ऐसे प्रश्न हैं जो युवा कविता को जीवन और यथार्थ से दूरी बनाने में सहयोगी रहे हैं। युवा रचनाशीलता के विशाल हिस्से में आदिवासी, किसान, स्त्र्ाी, मजदूर, अल्पसंख्यक तो नहीं ही हैं, दुर्भाग्य यह है कि मध्यवर्ग विकास और विनाश की जिस तरंग पर सवार है उसकी भी प्रामाणिक अनुभवजन्य और शक्तिशाली शिनाख्त नहीं हो पा रही है।
युवा कहानी का बड़ा हिस्सा तो बाजार का पर्याय ही हो गया है। इधर की कहानियों में अपने परिवेश के यथार्थ, अनुभव, भाषिक बोध, विचार, कल्पना के कलात्मक संयोजन के बदल्ो बाजार के मांगपूर्ति नियम और जल्दी-जल्दी हिट व फिट हो जाने का असंयम बहुत जोर मार रहा है।
युवा आलोचना की इस अराजक रचनात्मक दौर में बड़ी जिम्मेदारी बनती है। उसे रचनाशीलता की दिशा तय करने का ऐतिहासिक दायित्व निभाना है जबकि वह हड़ताल और उपवास के नाम पर भंग का घोल पीकर सो रही है।
2. समाज कभी भी इतने बड़े संकट से नहीं गुजरा है। यह सच है कि समाज जब-जब संकट से गुजरा है, साहित्य की युगांतरकारी भूमिका रही है। हमारे समाज में मध्यकाल और उपनिवेशवाद विरोधी साहित्य इसके शक्तिशाली प्रमाण हैं। आज सभ्यता जिस बर्बर मोड़ पर पहुँच गई है वहाँ मनुष्यता से बड़ा प्रश्न पृथ्वी और मनुष्य के अस्तित्व के बचे रहने का है। जब नदी, पेड़, हवा, चिड़िया ही नहीं होंगे तब साहित्य कहाँ होगा। शायद यह मनुष्य और साहित्य दोनों के अस्तित्व के लिए सभ्यता के इतिहास में सबसे बड़ी लड़ाई है। मेरी राय में एक ल्ोखक के लिए एक साथ रचने और लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। दुनिया भर में महान और पक्षधर साहित्य आज भी निर्मित हो रहा है। हमारे समय में ही गार्सिया, दरवेश, नोम चाम्स्की, अरुंधती राय, महाश्वेता देवी, वरवर राव जैसे रचनाकार हैं। बाजार का साहित्य और प्रतिरोध का साहित्य दोनों का भविष्य है परन्तु मनुष्य और सभ्यता का भविष्य प्रतिरोध के साहित्य के साथ होगा।
3. युग यथार्थ में बदलाव से रचना यथार्थ में भी बदलाव होता है। परिणामतः रचना की नई संवेदना की परख के लिए आलोचना के नए प्रतिमानों और औजार की जरूरत पड़ती है। इस संदर्भ में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य और जीवन के कुछ स्थायी भाव एवं मूल्य होते हैं। यथार्थ के स्वरूप में परिवर्तन के बावजूद जैसे कुछ स्थायी मूल्यों का सारतत्व हमेशा एक जैसा बना रहता है, यही बात रचना और आलोचना पर भी लागू होती है। यथार्थ के स्वरूप में परिवर्तन के बावजूद, उसके द्वन्द्व और गति में परिवर्तन के बावजूद समानता, स्वतंत्र्ाता और बन्धुत्व जैसे मूल्य-सारांश स्थायी हैं। रचना का महत्व यथार्थ की गति और द्वन्द्व में अनुभवजन्य बदलाव के चित्र्ाण में होता है। बदलते हुए गतिशील यथार्थ को पकड़ने के लिए नये प्रतिमानों और औजारों की जरूरत पड़ती है।
हमारे समय की रचनाशीलता की परख के लिए कुछ नये रिन्च, आरा, बसूल्ो, छेनी, हथौड़ी, रूखान आदि की जरूरत है। हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना की मजबूत परम्परा है तथा उसके समानान्तर कलावादी आलोचना की भी पटरी बनी हुई है। भूमंडल और कमंडल की आँधी के बाद यह पहली बार हुआ है कि मार्क्सवादी और कलावादी आलोचना का एक अनैतिक गठबंधन, आदान-प्रदान और ल्ोन-देन शुरू हुआ है। हिन्दी-उर्दू के महत्वपूर्ण कवियों के जन्म शताब्दी वर्ष में वामपंथी आलोचक शिविरों में दक्षिण पंथी साहित्य और तानाशाही राज्य हिंसा की ओर जिस तरह की मंच लूटू, सत्ता चिपकू अफरा तफरी शुरू हुई है, उसने प्रगतिशील साहित्यिक आन्दोलन के इतिहास को अपमानित और कलंकित ही किया है। पड़ताली पीढ़ी की समझौतापरस्ती, विचारधारा और जनता से किए जा रहे घात ज्यादा घृणित हैं तथा नई पीढ़ी को उसके राजमार्ग पर बढ़ने का खूबसूरत तर्क मिल गया है। साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता, ब्राह्मणवाद, सामन्ती ढाँचे, किसान प्रश्न, आदिवासी प्रश्न, स्त्र्ाी प्रश्न, उत्पीड़ित राष्ट्रीयता का प्रश्न, संसदीय लोकतंत्र्ा का प्रश्न, मध्यवर्ग का प्रश्न- ये कुछ ऐसे प्रश्न है जो हिन्दी रचनाशीलता में कमोवेश अपनी उपस्थिति नये सिरे से बना रहे हैं। जाहिर है इन मूल्यों की छानबीन के लिए नये औजारों का आविष्कार होना चाहिए।
अब पुराने मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र्ा का पुराने ढंग से इस्तेमाल कर काम नहीं चलाया जा सकता। युवा आलोचना के सामने प्रधान अन्तर्विरोध नवसाम्राज्य बनाम भारतीय आम जन का संघर्ष है। नव साम्राज्य के सम्पूर्ण निष्ोध और प्रतिरोध के बिना आलोचना की जो मूल्य प्रणाली बनेंगी वह संसदीय जनतंत्र्ा की सारी खामियों से ल्ौस होगी। साहित्य में सामंती ब्राह्मणवादी मूल्यों से जनतांत्र्ािक मूल्यों का संघर्ष है, ल्ोकिन आलोचना के एक हिस्से के लिए उपभोक्तावादी बाजारू मूल्य और पूँजीवादी संसदीय मूल्य भी जनतांत्र्ािक मूल्य ही दिखता है। इस तरह का विचार वस्तुतः किसान, मजदूर, लोक और हाशिए को उसके वैश्विक अंतर्विरोध के परिप्रेक्ष्य में न देखने से पुरानी किस्म की मार्क्सवादी व संसदवादी जड़दृष्टि का शिकार हो जाता है। 
औपनिवेशिक आधुनिकता बनाम वैकल्पिक आधुनिकता का सवाल आलोचना का दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न होना चाहिए। किसान, आदिवासी और मजदूर प्रश्न को भी अब नये सिरे से देखने की जरूरत है क्योंकि मार्क्स के औद्योगिक पूँजीवाद की तरह आज के कारपोरेट पूँजीवाद मंे कोई प्रगतिशील सकारात्मक मूल्य नहीं रह गया है बल्कि कारपोरेट पूँजीवाद उत्तर आधुनिकता और मध्यकालीनता का खतरनाक सम्मिश्रण है। मध्यवर्ग की बाजार के साथ बन रही भूमिका के नकारात्मक एवं सकारात्मक पक्षों पर विचार होना चाहिए न कि माल पिज्जा और मैकडॉनाल्ड की हर गतिविधि में टूटता हुआ सामन्ती मूल्य और बनता हुआ जनतांत्र्ािक मूल्य भावनिष्ठ ढंग से खोज ल्ोना चाहिए।
4. युवा पीढ़ी की आलोचना संकट में है और धर्मसंकट में भी। दुर्भाग्य यह है कि जो आलोचना खुद संकटग्रस्त है वह कभी-कभी जब रचना में संकट खोजने पहुँचती है तो रचना और आलोचना दोनों को कुछ ज्यादा ही संकटाकीर्ण बना देती है।
हिन्दी में आलोचना के संकट के कई कारण दिखते हैं। पहली समस्या प्रतिभाशील आलोचनों की कमी है। दूसरी, युवा पीढ़ी के पास आलोचना की जो व्यापक तैयारी होनी चाहिए उसका सर्वथा अभाव है। तीसरी, आलोचना के पास अपनी समकालीन रचनाशीलता और रचना की परम्परा से ईमानदार आत्मीय लगाव नहीं है। चौथी, नवसाम्राज्यवादी पूँजीवाद के बिल्कुल नये यथार्थ के गति और द्वन्द्व को समाज और रचना दोनों स्तरों पर समझने और दिशा देने में समकालीन बौद्धिकता अक्षम दिख रही है। हिन्दी में कविता आलोचना की लम्बी और शानदार परम्परा होने के कारण यह क्ष्ोत्र्ा सहज भी है और कठिन भी। उपन्यास, आलोचना का पूरा क्ष्ोत्र्ा परती पड़ा है जबकि इस विधा में रचनात्मक उपलब्धियाँ महत्वपूर्ण हैं। कहानी आलोचना में सुरेन्द्र चौधरी, देवीशंकर अवस्थी, नामवर सिंह के बाद व्यवस्थित एक भी काम नहीं दिखता।
आज की आलोचना के सामने संकट के साथ धर्मसंकट भी कुछ कम नहीं है। यह धर्मसंकट, कई क्ष्ोत्र्ाों से प्रेरित प्रभावित है तथा कई क्ष्ोत्र्ाों को प्रेरित प्रभावित कर रही है। इस धर्मसंकट के केन्द्र में आलोचक का व्यक्तिवाची धर्म ही ज्यादा है। युवा पीढ़ी के धर्म संकट वाली आलोचना की कुछ किस्में इस हैं- पदोन्नतिमूलक आलोचना, द्रोणमार्गी आलोचना, धर्मशील आलोचना, साधो आलोचना, जातिवादी आलोचना, आदि। पदोन्नतिमूलक आलोचना ऐसी आलोचना है जो विश्वविद्यालय केन्द्रित है वहीं धर्मशील अलोचना का सम्बन्ध पुनरुत्थानवादी मूल्यों की पुनर्स्थापना से है। काशी प्रयाग जैसी जगहों में यह ज्यादा फलती फूलती है। द्रोणमार्गी आलोचना वह है जिसमें पाण्डवगण वैसे ही पुराने प्रतिमानों का इस्तेमाल करते हैं, जिस तरह का प्रशिक्षण उन्हें गुरुओं से मिला है। साधो आलोचना वह है जिसमें साधना कहीं नहीं है, केवल एक-दूसरे को साधने का भाववाची अनैतिक अभियान जारी है। इन दिनों आलोचना इतनी अप्रासंगिक तथा अविश्वसनीय हो गई है कि विश्वविद्यालय के छात्र्ा भी उससे उदासीन होने लगे हैं।
आलोचना के संकट-धर्मसंकट का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि सत्ता सम्बन्ध गांठने के फिराक में वह अपना बौद्धिक कर्म भूलकर पड़ताली पीढ़ी के लिए यज्ञ अनुष्ठान में व्यस्त है। वह केवल पुरानी पीढ़ी के लिए विश्ोषणों का आविष्कार कर रही है। मसलन- शिखर पुरुष, हिमालय पुरुष, धरती पुरुष, आकाश पुरुष आदि। आलोचना के संकट के निर्माण पुरानी पीढ़ी की भूमिका घातक और ध्वंसक रही है। पड़ताली पीढ़ी ने रीढ़हीन बौद्धिक वर्ग का निर्माण किया ताकि उसकी खुरपुजाई जारी रहे। पड़ताली पीढ़ी की अनुगामी आलोचना भक्तिमार्गी आलोचना हो गई है जबकि विरोधी आलोचना अराजक सुविधापरस्ती का शिकार। पुरस्कार और सत्तापरस्ती भी युवा आलोचना के बड़े दुश्मन सिद्ध हुए हैं।
5. हिन्दी की युवा आलोचना औपनिवेशिक ज्ञानमीमांसा की जबरदस्त शिकार है। उसका समकालीन रचनाशीलता के मूल्यांकन और रचना परम्परा के पुनर्मूल्यांकन के क्ष्ोत्र्ा में कोई व्यवस्थित और ऐतिहासिक दिलचस्पी नहीं है। वह या तो रचना कर्म से पाँच-सात कदम आगे है अथवा रचना कर्म से बहुत पीछे। हिन्दी आलोचना के पाठकों पर हिंग्लिशिया आलोचकों द्वारा आतंक और धुंध का जितना प्रहार हुआ है उतना प्रहार अंग्रेजी बौद्धिकों ने भी नहीं किया होगा। पड़ताली पीढ़ी ने अपने अंग्रेजी ज्ञान के कारण दुनिया भर का माल अपने नाम से हिन्दी में ठेल दिया। नई पीढ़ी पर भी इसका जबरदस्त असर दिख रहा है। इधर शोधालोचना और आलोचना की कई किताबें आई हैं जो एक ओर पश्चिमी ज्ञान के घटिया उद्धरणों का संकलन है, दूसरी ओर उनकी हिन्दी की रचनाशीलता से कोई आन्तरिक संवाद नहीं है। पदोन्नतिमूलक आलोचना एक तरह से अतीतोन्मुख आलोचना भी होती है। हिन्दी में रामचन्द्र शुक्ल सर्वाधिक महत्वपूर्ण उदाहरण है जहाँ आलोचना रचना से एक कदम आगे चलती है।
6. भूमंडलीकरण के कारण हिन्दी ल्ोखन जगत पर बाजार का बहुत गहरा प्रभाव है। साहित्यिक पत्र्ाकारिता बाजार से संचालित है न कि समाज से। यह अनायास नहीं है कि हिन्दी में कहानीकारों का सेलिब्रटी गैंग कुछ पत्र्ािकाओं के द्वारा प्रायोजित किया गया तथा समाज, सरोकार और रचनाकला से ज्यादा वहाँ ल्ोखक महत्वपूर्ण हो गया। यह स्थिति किसी भी संकट और संक्रमण में फँसे समाज की बौद्धिकता के लिए आत्मघाती कदम है। साहित्यिक पत्र्ाकारिता ने गम्भीर आलोचना के लिए अपना स्पेस कम करते हुए एकल कहानी, एकल कविता पर समीक्षात्मक टिप्पणी शुरू की तथा आदान-प्रदान के आधार पर फूहड़ एवं छिछली पुस्तक समीक्षा आरम्भ हुई। डेढ़ दशक का नतीजा सामने है। ऐसी रचनाशीलता और आलोचना दोनों बड़ी तेजी से चुक रही है, अप्रासंगिकता की शिकार हो रही है।
7. आलोचना लुच धातु से बनी है जिसका अर्थ देखना होता है। आजकल इसका एक अर्थ लुच्चई भी हो गया है। आलोचना को मुक्तिबोध सभ्यता समीक्षा कहते हैं। कृति से संवाद बनाने, संवेदना की प्रक्रियाओं को समझने, सौन्दर्य मूल्य के निष्कर्ष तक पहुँचने, वस्तु और रूप के अविभाजित द्वन्द्व के कारणों की खोज करने के लिए आलोचक के पास विश्वदृष्टि का होना बुनियादी शर्त है। जीवन गैरराजनीतिक नहीं हो सकता। जीवन की पुनर्रचना भी तब गैरराजनीतिक नहीं होगी। जीवन और साहित्य दोनों के विश्व दृष्टि से सम्पन्न होने के बाद कोई आलोचना विचारधारा विहीन कैसे हो सकती है। आलोचना का कार्य रचना और समाज के द्वन्द्व को समझते हुए न केवल उनके रिश्ते की व्याख्या करना है बल्कि उनके भविष्य का रास्ता भी प्रशस्त करना है।
8. सम्पूर्ण रचना परिदृश्य पर ध्यान रखना और बात है और उसके साथ न्याय करना दूसरी बात है। हरएक पाठक को पसंद नापसंद का अधिकार उसका निजी मामला है। यह बात कमोवेश आलोचक पर भी लागू हो सकती है। इसलिए कि हर एक व्यक्ति का संवेदना मानस अलग स्थितियों में निर्मित होता है जो उसकी रुचि भिन्नता पर असर डालता है। लेकिन हिन्दी आलोचना में पसंद नापसंद का रिश्ता रचना से कम रचनाकार से ज्यादा है। यदि रचनाकार काम का है तो आलोचक महोदय कूड़े के ढेर से बारूद का कण निकाल कर दिखा सकते हैं।
बड़े पैमाने पर हिन्दी पत्र्ािकाओं में नकली और सतही रचनाओं का अंबार लगा है जिनसे पाठक वर्ग परेशान हैं। बनारस में दो दर्जन से अधिक हिन्दी पत्र्ािकाओं की सौ से अधिक कापियाँ आती हैं। हिन्दी के सैकड़ों पाठकों की यह शिकायत लगातार बनी रहती है कि अन्न के एक कण के लिए कूड़े के विशाल ढेर को उन्हें उलटना पुलटना पड़ता है।
मेरे हिसाब से पूरे रचना परिदृश्य पर ध्यान रखते हुए अच्छी और बुरी रचना की पहचान होनी चाहिए। मैं ऐसा ही करता हूँ। हिन्दी के पाठक रचना चयन में आलोचक से ज्यादा भरोसेमंद हैं तथा अब वे अपनी राय खुद बनाने लगे हैं। मैं दो उदाहरणों से अपनी बात स्पष्ट करना चाहता हूँ। हिन्दी के एक शक्तिशाली युवा कथाकार हैं- अनिल यादव और उभरते हुए युवतर कवि हैं- अनुज लुगुन। आपने इन दोनों की रचनाओं पर कहीं भी विशिष्ट तरह से बहस नहीं देखी होगी। ये दोनों परिदृश्य से बाहर हैं। क्यों? इसकी गहरी राजनीति है।
इधर नया ज्ञानोदय का लम्बी कहानियों का विश्ोषांक आया है तथा उससे पहल्ो बया में, अनिल यादव की लम्बी कहानी ‘‘नगर वधुएँ अखबार नहीं पढ़ती’’ आयी है। यह कहानी न केवल नया ज्ञानोदय की सारी कहानियों से बहुत ज्यादा ताकतवर है बल्कि इधर के वर्षों में छपी गिनी चुनी कहानियों से टक्कर ल्ोती है। अनिल का अंतिका प्रकाशन से इसी साल नया कथा-संग्रह भी आ गया है। ल्ोकिन आज तक इस महत्वपूर्ण कथाकार पर किसी आलोचक की कलम इसलिए नहीं चली क्योंकि ये किसी गुट में पालकी ढोने का काम नहीं कर रहे हैं। आदिवासी समाज का हिन्दी में नया विश्वसनीय स्वर अनुज लुगुन हैं। मिटते हुए आदिवासी समाज की अनुभवजन्य शिनाख्त इनकी कविताओं में है। हिन्दी का जो बौद्धिक समाज आदिवासियों के खात्मा अभियान के नियन्ताओं के शिकार मेल्ो में जश्न का सुख ल्ो रहा है उसके लिए अनुज लुगुन की कविता गल्ो में फाँस की तरह है। कई बार राजनीति और कला की ऊँचाई मीडियोकर प्रतिभाओं के लिए संकट बन जाती है। हिन्दी जैसे अर्द्धसामन्ती मूल्यों वाल्ो समाज में ऐसी अनैतिक सामूहिकता साहित्य के क्ष्ोत्र्ा में गला घोंटने का काम करती रही है।
रचना और आलोचना की समानान्तर सक्रियता ही हिन्दी समाज और संस्कृति की जड़ता को तोड़ सकती है। इसके लिए हिन्दी साहित्यिक पत्र्ाकारिता और जेनुइन ल्ोखकों का संगठित आन्दोलन जरूरी है।
9. मेरे ख्याल से यह शोषण और प्रतिरोध के महाख्यान का दौर है। इसलिए वर्तमान और भविष्य की केन्दीय विधा उपन्यास है। हिन्दी कहानी की जो दुर्दशा है वह कविता के बाद ही रहेगी।
10. मेरे लिए आलोचना रचना के समानान्तर दूसरी रचना है। यदि रचना जीवन की पुनर्रचना है तो आलोचना रचना की पुनर्रचना है। हिन्दी के इस प्रसिद्ध वाक्य की कसौटी पर आलोचना को लगभग रचनात्मक ल्ोखन जैसा ही सम्मान मिलना चाहिए। वस्तुतः आलोचना केवल रचना के भीतर के मूल्यों का विमर्श या विवेचन विश्ल्ोषण ही नहीं है। आलोचना रचना के भीतर के जीवन और यथार्थ की परतों को खोलते हुए रचना के जीवन, संवेदना और विचार का सृजनशील विस्तार करती है। यह सृजनशील यात्र्ाा रचना के साथ चलते हुए उसके समानान्तर घटित होती है। पाठ खोलने की प्रक्रिया में विमर्श, विवेचन, विश्ल्ोषण, व्याख्या, भाष्य आदि पाठ की आत्मा तक पहुँचने के औजार हैं ल्ोकिन जिस विश्वदृष्टि और बोध के सहारे रचना का अन्तर खंगाला जाता है वहाँ आलोचना अपना एक प्रतिसंसार रचती है।
युवा आलोचना का दुर्भाग्य यह है कि उसके पास कोई अपने समय की रचनात्मक भाषा नहीं है। आप रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलस शर्मा, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, जैसे आलोचकों के आल्ोख पर से नाम हटाकर केवल उनकी भाषिक संरचना से उनके आलोचक व्यक्तित्व की पहचान कर सकते हैं। आज की आलोचना की भाषा ग्लोबल एजेंडे की शिकार है। कुछ आलोचकों की आलोचना भोंडी समाजशास्त्र्ाीयता से जुड़े विमर्श को ही आलोचना का मानदंड समझती है, वहीं कुछ आलोचक रूपवादी रूझान के कारण आलोचना की जल्ोबी श्ौली का विकास कर रहे हैं। आज की आलोचना के अधिकांश हिस्से में मार्क्स से ल्ोकर टेरी ईगलटन तक ताल ठोंकते हुए दिख जायेंगे ल्ोकिन बेचारा आलोचक खुद कहाँ है, पता नहीं चल्ोगा।