.न रूप है न रूपया,न नगरीय सुविधा है न
बोध.न जाने क्यों इस ठेठ देहात का नाम रूपनगर हुआ.इतिहास के नाम पर अंग्रेजों
द्वारा एक दौर में लूट और यात्रा के लिए बनाया गया रेलवे टीसन था.आज़ादी क्या मिली,
रेल ने भी रास्ता बदलकर मुंह मोड़ लिया.फिर भी यह गुणी गाँव रूपनगर ही कहलाता रहा.
गाँव
का ह्रदय क्षेत्र दुर्गाथान.दिन के तीन बजे. यहाँ हर वार इतवार होता है.चाय के लिए
चूल्हे में कोयला चढ़ गया है.फूस की छानी धुएं और आग से भर गई है.किसान और निठल्ले
चर्चा को केतली,स्पेन और छन्ने पर खौलाना शुरू कर चुके हैं. बहस में हर चीज ठहरी
हुई है.तभी बाल और युवा मंडल से लदी फटफट मैदान में पहुँचती है.
गाँव
की संस्कृति में बदलाव और हस्तक्षेप शुरू है...बैनर टंग गया-प्रतिबिम्ब संवाद श्रृंखला
.सिमरिया,बेगूसराय,बिहार-851126.बिस्मिलाह खान के बनारस से आई डफली बोलने को बेताब
है.बाल कलाकारों के होठ –हम होंगे कामयाब-गीत से गाँव की जमी हुई काई को पोछ देना
चाहते हैं...धीरे धीरे अच्छी खासी भीड़ जुट गई है..तास के पत्ते उर्फ़
साहब,जोकर,गुलाम,इक्के,नहले,दहले शर्मा उठे हैं.सत्तर पार के कामरेड गंगाधर पासवान
का कमजोर और बीमार शरीर लगातार पसीना बहाकर हर जरूरी चीज को जुटा रहा है और सोलह
से छब्बीस की जवानी मोबाइल पर मस्त है.
तभी
शुरू होता है झांझ की झनक और डफली की धमक पर जनगीतों का निनाद-साहबजी के द्वारे पर
सत्संग लगा है/इस नैया की हर काँटी में जंग लगा है ..और आज के गाँव की माया परत दर
परत उघरती चली जाती है..हर वक्ता नए तेवर में है..गाँव का कच्चा–पका अनुभव और सघन
संवेदना से लबरेज..
गाँव पर सिर्फ आर्थिक संस्कृति का कब्ज़ा है.गाँव के शरीर में शहर की रूह
प्रवेश कर गई है.गाँव गोरे अंग्रेजों से लड़ता था,काले अंग्रेजों से डरता है.पहले
छोटी छोटी बातों पर आंदोलन होता था अब बड़ी बड़ी बातों पर चुप्पी बनी रहती है.गाँव
में पंचायतीराज की संस्कृति ने जन संस्कृति को विस्थापित कर दिया है.पंचायतीराज की
संस्कृति मूलतः भ्रष्टाचार और लूटाचार की संस्कृति है.पुस्तकालय आज भूसा रखने का
केंद्र है.टेलीविजन ने पुस्तकालय को विस्थापित कर दिया है.
गाँव
का मतलब बैलगाड़ी,पगडण्डी,फूस का घर सोचना बेवकूफी है.अब गाँव नेट,टीवी,फेसबुक,
व्हाट्स अप,एलपीजी,डीवीडी,एमएमएस से तय हो रहा है.नई पीढ़ी में ऐसी चेतना ही नहीं
है कि पूर्वजों की खोज को संभाल सके.गाँव के लोग आज अपना प्रतिनिधि संस्कृति से
च्यूत व्यक्ति को चुनते हैं इसलिए गाँव संस्कृति से अलग होता जा रहा है.
...और
गाँव के एक लोकगायक सत्ता के डर से गद्य
में बोलने से इंकार कर देते हैं.वे कविता में अमूर्तन का छंद रचने लगते
हैं.सुनिए-शर्म आती है कुछ कहना होगा/फिर भी गाँव में रहना होगा/बंद हैं खिड़की बंद
हैं द्वारे/बैठे हैं सब चुप बेचारे.
एक
वक्ता दो वक्ता.इधर वक्ताओं की कतार ,उधर श्रोताओं की भरमार...रेडियो खोलिए
..अच्छे दिन आ रहे हैं...टीवी –अखबार खोलिए...अच्छे दिन आ रहे हैं..भैया..कब अच्छे
दिन आ रहे हैं..किसान भयभीत हैं. अगर गाँव से सर के ऊपर से बुलेट ट्रेन दौर गई तो
सबसे बुरे दिन होंगे...गाँव में किसान के बेटों के लिए खेल के मैदान नहीं रहे,कला
सीखने की व्यवस्था नहीं है.बच्चों की खिचड़ी गुरूजी और मुखियाजी घोंट जा रहे हैं.जो
बच्चों का अन्न चुराएगा उसका बच्चा ईमानदार हो ही नहीं सकता.
पहले दरवाजे पर मानस पाठ होता था आजकल बावन पत्तों का ताश होता है.बच्चों
को संस्कृति से जोड़े बिना नई संस्कृति नहीं बन सकती.गाँव में पढ़े लिखे लोग
संस्कृति का ज्यादा गला घोंट रहे हैं.आज गाँव में व्यक्ति को वस्तु में देखने की
संस्कृति का विकास हो रहा है.युवा पीढ़ी के सामने कोई आदर्श नहीं है.पैसा आज का
सबसे बड़ा आदर्श है और मौज मस्ती लक्ष्य.
आज
हर दालान दूकान में तब्दील हो गया है.हर दीवार पर विज्ञापन का इश्तहार है. गाँव
में जिंस का प्रचार पहले भी होता था. नौटंकी कम्पनी वाले दो दृश्यों के बीच खास
ब्रांड की बीडी दर्शकों पर फेंक कर लुटाते थे और सोटने वाले मुख उस ब्रांड के
दीवाने हो जाते थे.आजकल फ्री में तेल,कोल्ड ड्रिंक का छोटा पौच बांटा जा रहा है.
हर
किसी के पास एक ही डायलाग है-भाई साहब!समय नहीं है.कोई पडोसी का मकान देखकर,कोई
पडोसी की बाइक देखकर,कोई अपने बच्चे का मोबाइल गेम सेपरेशान है.गाँव के नब्बे
फीसदी बच्चे मोबाइल के गूगल के पेट से
ज्ञान नहीं,गेम निकालकर मस्त हैं.
गाँव
की संस्कृति कंक्रीट में दबती जा रही है.गाँव में एनजीओ का बोलबाला है.महान
प्रतीकों के नाम पर एनजीओ के धंधे शुरू हो रहे हैं.संस्कृति अब बदलाव का हथियार
नहीं,उत्सव और कर्मकांड का बाजार है.एनजीओ गाँव को बचाने से ज्यादा चमचमाती कारों
और भव्य इमारतों को बनाने में मशगूल है.
गाँव
में पियो और फेंको संस्कृति फल फूल रही है.शाम का समय हर चौक मस्त रहता है.अब
गल्ले और परचून की दूकान दारू की भट्ठी की तरह कच्चा माल मुहैया कर रही है.दवा
दूकान के फ्रीज़ में बियर ठंडा होकर तैयार है.सिमरिया ने पछले दिनों एक सप्ताह में
पांच मौतें देखीं हैं.गाँव में भोग की संस्कृति हीनताबोध की संस्कृति पैदा कर रही
है... गाँव पर यह चिंतन और सरोकार गाँव के बीच से पैदा हो रहा है...रूपनगर वर्ण और
वर्ग संश्रय से निर्मित लम्बा समाज रहा है.
प्रतिबिम्ब
इन दिनों गाँव के रोगों के कारणों की खोज कर रहा है और साथ ही बाल मंच का नव
निर्माण कर डफली के माध्यम से नई संस्कृति का बीज बो रहा है. आप भी जुड़िए..
4 टिप्पणियां:
रूपनगर हो या पक्ठौल धनकौल, दुलारपुर हो या रामदिरी, मंझौल हो या सिमरिया हर जगह कमोबेश यही देखने को मिलता है. चिक्का दरबड़ कबड्डी छोड़ टीन ऐज वाले गेम खेलने में मोबाइल पर मस्त हैं. सारे बाबूजी पप्पा हो गए माय मम्मी हो गयी. लोग ज्यादा चुटकट्ट हो गए हैं. टीवी से सारा समय छीन लिया है. खेत खलिहान सिकुड़ता जा रहा है. पियक्कड़ों की तायदाद में भारी इजाफा हुआ है. आपकी चिंता वाजिब है. लगे रहिये, करते रहिये, जितना हो सके, गाँव जाते रहिये.
रूपनगर हो या पक्ठौल धनकौल, दुलारपुर हो या रामदिरी, मंझौल हो या सिमरिया हर जगह कमोबेश यही देखने को मिलता है. चिक्का दरबड़ कबड्डी छोड़ टीन ऐज वाले गेम खेलने में मोबाइल पर मस्त हैं. सारे बाबूजी पप्पा हो गए माय मम्मी हो गयी. लोग ज्यादा चुटकट्ट हो गए हैं. टीवी से सारा समय छीन लिया है. खेत खलिहान सिकुड़ता जा रहा है. पियक्कड़ों की तायदाद में भारी इजाफा हुआ है. आपकी चिंता वाजिब है. लगे रहिये, करते रहिये, जितना हो सके, गाँव जाते रहिये.
रूपनगर हो या पक्ठौल धनकौल, दुलारपुर हो या रामदिरी, मंझौल हो या सिमरिया हर जगह कमोबेश यही देखने को मिलता है. चिक्का दरबड़ कबड्डी छोड़ टीन ऐज वाले गेम खेलने में मोबाइल पर मस्त हैं. सारे बाबूजी पप्पा हो गए माय मम्मी हो गयी. लोग ज्यादा चुटकट्ट हो गए हैं. टीवी से सारा समय छीन लिया है. खेत खलिहान सिकुड़ता जा रहा है. पियक्कड़ों की तायदाद में भारी इजाफा हुआ है. आपकी चिंता वाजिब है. लगे रहिये, करते रहिये, जितना हो सके, गाँव जाते रहिये.
हम जिस समाज के बीच हैं, वह ‘चुप्पा’ है या फिर अपने इंगलिशिया ज्ञान पर गुमान करने वाला। गाँव में यह नेट-पैक के खर्चे में मोबाइल पर उपलब्ध है। हरकिस्मा मसाला ‘ट्यूब’ पर मौजूद है। ट्यूबबेल वाली पुरानी नहान अब इसी पर हो रहा है। गाँव के बच्चे खान-पान, कपड़े-लते, शिक्षा-दीक्षा से अकालग्रस्त हैं; लेकिन सचिन के सन्यास और धोनी के धमाकेदार जीत के बारे में वे बखूबी जान रहे हैं।....यानी वास्तविक प्रतिबिम्ब के अभाव में हर बिम्ब उलट-पलट गया है। शशिधर जी ने इसी का सिरा पकड़ा है और सच की ओर सही रूख किया है। वैसे समय में जब बौद्धिक जन खेतिहर, ग्रामीण और जनपक्षी नहीं रहे। यह प्रयास काबिलेतारीफ है। साधुवाद!
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