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29 अगस्त, 2018

राहुल सांकृत्यायन के राष्ट्रवाद की खोज जरूरी:रामाज्ञा शशिधर

📒दिल्ली फ़ाइल-2📒
📚राहुल बाबा:एक ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी📚
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दिल्ली बदली बदली सी है।आजकल बदली का ही मौसम है।बदली के माहौल में दिल्ली में हूँ।काशी से दिल्ली आना बेगूसराय की अपेक्षा आसान है।दूरी कम है।पुरानी यादों,सड़कों,ज्ञान कला केंद्रों और आत्मीय सहयात्रियों से जुड़ना स्वयं की खोई हुई तलाश है।
       राहुल बाबा पर बहस है,इसलिए यह विचार यात्रा जरूरी है।आज राहुल बाबा जैसे ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी की जरूरत ज्यादा है।वे ऑर्गेनिक इसलिए थे क्योंकि एक साथ एक्टिविस्ट,खोजकर्ता,घुमक्कड़,दार्शनिक और लेखक थे।वे वेदांत पुराण के समांतर खोए हुए बुद्ध की खोज कर सकते थे।वे बिहार के किसान शोषण के विरुद्ध लाठी खा सकते थे।वे हाथी,हथकड़ी और जेल से न डरते हुए जन भाषा में जन सत्याग्रह कर सकते थे।वे भोजपुरी में भाषण ही नहीं देते थे बल्कि 8 नाटक लिखकर एक साथ फिरंगी सत्ता,फासिस्ट सत्ता और सामंती सत्ता से लोहा ले सकते थे।राहुल जी कह सकते थे कि मेरा लेखन खेत को कुदाल से कोरने जैसा है।
            राहुल बाबा बाईसवीं सदी का राष्ट्र बनाना चाहते थे।इसलिए वे बार बार आह्वान करते थे-भागो नहीं दुनिया को बदलो।आज राष्ट्र की उलटी गिनती शुरू है।जो इतिहास और राष्ट्र के भगोड़े थे वे रामराज्य से दुनिया को बदल देना चाहते हैं।
📒दिल्ली फ़ाइल-3📒
📚राहुलबाबा पर जब चला चोरी का मुकदमा📚
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राहुल बाबा की बेटी जया जी ने राहुल स्मृति संगोष्ठी में प्रोजेक्टर पर ये क्या तस्वीरें दिखाईं-राहुल बाबा दुनिया की सबसे ऊँची जगह तिब्बत की दस हजार फ़ीट के बर्फ देश पर बौद्ध भिक्खु।।                                                                  
            याद आया धर्मशाला में अपने ही देश तिब्बत से जान बचाकर छिपे दलाई लामा और हजारो लामा।नालंदा ट्रेडिशन के जीवंत प्रहरी।स्मृति खंडहर वाले भारत की संवाद शिक्षा पद्धति को बचाए बच्चे।
         राहुल बाबा कभी नेपाल के रास्ते कभी कलिंगपोंग की राह।चार यात्राएं।
        जया जी की मां कमला जी भी तो कालिंगपोंग में राहुल जी के पहले प्यार रूसी लोला के बहुत बाद तब मिली थी जब वे 55 पार थे और पांडुलिपि सृजन में तल्लीन।राहुल बाबा का हर प्यार पांडुलिपि के पन्नों से होकर निकला।

            शब्द और प्यार का अनूठा संसार रचने वाले बाबा चाहते थे कि ब्रिटिश द्वारा गढ़ी गई भारत की छवि को नष्टकर वे पुराना भारत खोज लाएं।आज बुद्ध का वह बर्फ देश ड्रेगन देश की तोप से कब्जा है।
            क्या आप जानते हैं कि आज राहुल बाबा तिब्बत के मठों से क्यों बुद्ध को नहीं ला सकते थे?इसलिए कि ड्रैगन का अघोषित आपातकाल उन प्राचीन तालपत्रों पर भी है जिनमें राष्ट्र और राजनीति की बू तक है।यह जानकारी मुझे भारत में स्थापित निष्कासित तिब्बत मंत्रालय की लायब्रेरी से हिमालय यात्रा के दौरान मिली।खैर।
          यह दूसरी तस्वीर आज के लेखकों एक्टिविस्टों की याद दिलाती है-महापंडित राहुल बाबा के हाथों में हथकड़ी।अगल बगल सिपाही।जमाना अंग्रेजीराज का।साजिश भूमिलूटरों की।
              बुद्ध की करुणा और शांति के हजारों पन्नों का बंडल खच्चर पर चार पर्यटन में नहीं,चार यात्राओं में लाने वाले बाबा जब भारत को नालंदा वापस करना चाह रहे थे तब भारत की सत्ता ने उन्हें किसान सत्याग्रही होने के कारण चोरी का आरोप लगाया,हथकड़ी पहनाई और सीवान छपरा हजारीबाग जेल की हवा खिलाई।
         यह हथकड़ी वाली ऑरिजिनल तस्वीर मुझे किसान आंदोलन पर सामग्री जमा करते हुए 1939 में प्रकाशित जनता की तीनमूर्ति लाइब्रेरी की फ़ाइल में मिली थी।किसी ने कैमरे से केप्चर कर लिया था।तब हाहाकार मचा था।
           ...फर्क और फर्क।बुद्धिजीवी के आंदोलन,संघर्ष,आवाज,शब्द,सत्याग्रह को तब भी बलवा,उत्पात,राष्ट्रद्रोह,हिंसा,चोरी,डकैती कहा जाता था और आज भी।राहुल बाबा का गुनाह था कि वे भोजपुरिया किसान के शोषण से मुक्ति के लिए चंपारण सत्याग्रह की अर्जी से आगे बढ़कर जमींदार-अंग्रेज द्वारा छीने गए खेत में जनमर्जी से ऊख कटवा रहे थे।जमीन किसकी।जोते उसकी।
         आज साढ़े तीन लाख आत्महत्या कर चुके किसानों के देश में किसी किसान की अस्थि की पूछ नहीं है।तब एक लेखक नागार्जुन खेत और जेल में साथ थे तो दूसरे लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी जनता में फ़ोटो खबर और लेख छाप रहे थे,तीसरे काशी प्रसाद जायसवाल,दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी आदि बाबा के कार्य का लेखा जोखा जनता तक पहुंचा रहे थे।आज किसान और किसान साहित्य की किसे चिंता है।
              राहुल बाबा ने बुद्ध से एक छोटी सी नाव ली थी और विचार भी।नाव नदी पार करने के लिए है रेत पर खींचने के लिए नहीं।आज पढ़े लिखे लोग भी धर्म और पाखंड की नौका कंधे पर लिये जीवित नरक की यात्रा में आनंदमय हैं।
       इसलिए किसान या तो विस्थापित हैं या हथकड़ी में या सल्फास और कपास की रस्सी के शिकार।हमें बुद्ध की दी गई नौका का सही उपयोग करना होगा।
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दिल्ली विश्वविद्यालय के आत्माराम सनातन धर्म कालेज में 125वीं राहुल सांकृत्यायन स्मृति गोष्ठी में जया सांकृत्यायन के अलावा मैनेजर पांडेय,मणीन्द्र नाथ ठाकुर,उर्मिलेश,गोपाल प्रधान,कमलनयन चौबे,प्रदीपकांत चौधरी आदि के विचार औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक समय की गहरी शिनाख्त करते हैं।जरूरत है राहुल जी की तरह मरकस बाबा बनने की।
         1944 में भागो नहीं दुनिया को बदलो किताब हिंदी में किसान और आमजन के राजनीतिक प्रशिक्षण की पहली जन किताब है।जन किताब इसलिए कि कई जन भाषाओँ की खिचड़ी हिंदी में वह किसान द्वारा व्यवस्था बदलाव के लिए लिखी गई है।
         राहुल जी अक्सर फुटपाथ पर दिखाई पड़ते हैं लेकिन विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में नहीं।जबाव साफ़ है।बुद्ध से लाये अंगार से डर।जरूरत है राहुल की पांडुलिपियों के उद्धार की।क्रूर और संकीर्ण राष्ट्रवाद के ज़माने में राहुल बाबा की यूरो केंद्रित आधुनिकता और औपनिवेशिकता विरोधी चेतना से रचित महान ग्रन्थ मध्य एशिया का इतिहास फिर से केंद्र में लाने की जरूरत है।बुद्ध की करुणा और मानवता से जुड़ने के लिए।
       प्रदीप कांत चौधरी की मांग जायज है कि क्यों नहीं आज यूरोप और अमेरिका को चुनौती देने के लिए राहुल सांकृत्यायन साऊथ सेंट्रल एशियन यूनिवर्सिटी की स्थापना भारत सरकार को करनी चाहिए।
      लेकिन जो सरकार जेएनयू जैसी शोध विचार की महान संस्था को स्लो और फ़ास्ट पोइजन से नष्ट कर रही है उससे हम और क्या क्या उम्मीद करें।
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रवीन्द्र की एक कविता है सोने की नाव।
          शाम का वक्त है।सुनहले बादलों से भरा आकाश।एक नाविक पश्चिम से सोने की नाव पानी भरे धनखेत से लेकर आ रहा है।किसान के सोने जैसी धान की फसल कटकर तैयार है।नाविक पूरा धान लाद लेता है।किसान कहता है कि मुझे भी ले चलो।जवाब मिलता-ए किसान।मेरी सोने की नौका तुम्हारे  सोने के धान से भर गई।अब तुम्हारे लिए जगह नहीं है।
           बुद्ध की नाव चोरी हो गई है।पूरब और पश्चिम दोनों दिशाओं के दो नाविक सोने का धान लूट रहे हैं।आखिरी खेप है।
       कोई आए और राहुल बाबा की तरह भिक्खु के वेश में नाव को थाम ले और किसान को बैठा ले।

दिल्ली का कॉफी हाउस एक बौद्धिक अड्डा :रामाज्ञा शशिधर

📗दिल्ली फ़ाइल-4📗
✒युवा लेखक कॉफी हाउस नहीं आते!✒
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सुनील का मैसेज आया।वे कॉफी हाउस 4.30 पर पहुँच गए।मैं मेट्रो से उतरकर कनाट प्लेस में फेब इंडिया का शर्ट देख रहा था।दो लिये और 5 तक पहुंचा।
            कुछ युवक युवतियां दिखे।कुछ किशोर भी।कुछ कॉफी में और कुछ सेल्फ़ी में मस्त।लगा कि दिल्ली का दिल अब भी धड़क रहा है।
             कॉपरेटिव कल्चर के पागवाले वेटर ने दोनों को पहले पानी से वेलकम किया।फिर हमने पंकज बिष्ट और रामानंद राय का इंतज़ार करते हुए कॉफी का ऑर्डर दिया।कॉफी पीते हुए देश और दिल्ली की राजनीति पर बहस शुरू हुई।किसान के मसले पर छपी किताबों पर खूब बातचीत हुई।
              कुछ उदास माहौल लगा तो हमने चारों नजर दौड़ाई।दिल्ली के युवा लेखक कॉफी हाउस क्यों नहीं आते?
        दो हज़ार पांच तक मैंने राजेंद्र यादव,पंकज बिष्ट,अजय सिंह,पंकज सिंह,आनंद प्रकाश,कांतिमोहन,हरदयाल,बटरोही,गोबिंद प्रसाद,भूपेन सिंह,रमण सिंह,श्रीधरम,कमाल अहमद,प्रमोद तिवारी,रामजी यादव जैसे अनेक  बौद्धिकों के साथ बौद्धिक बहसों में भाग लिया।लेखक पत्रकार एक्टविस्ट के कई मंडल थे।
         मुलाकात की सर्व सुलभ जगह।बिन कॉफी पिये भी आप घन्टों बैठ सकते हैं।शेयर कर सकते हैं।जेब वाले साथी की पी सकते हैं।
        तब मेरी जेब में पैसा कहाँ होता था!
      एकबार विष्णु प्रभाकर आए।गुलाल,पकौड़ी और कॉफी के साथ लंबे समय तक होली मिलन हुआ था।साहित्य के डॉन राजेंद्र यादव का संस्मरण भरा वक्तव्य हुआ।खैर।
             बहुत देर तक यह सवाल मथता रहा कि आजकल के युवा लेखक बहुत जगहें जाते हैं जिनमें एक रजा फाउंडेशन वाला मजा सेंटर भी है।लेकिन वे आज़ादी के बाद कॉपरेटिव मजूरों को पनाह देनेवाले स्थान से संघर्षशील होते हुए भी क्यों नहीं जुड़ते!
     इसके कारण तो अनेक होंगे।
        कनाट प्लेस में कई देशी मल्टीनेशनल ही नहीं खुल गए बल्कि सोशल मीडिया वर्चुअल कॉफी मीडिया हो गया है।लेकिन युवा ही कैसा जिसमें कुछ रिस्की आदर्श न हो।
           तबतक बिष्ट जी आ गए।पंकज बिष्ट और अनेक बहसकर्मियों के साथ लगभग 6 साल के वे दिल्ली के दिन तैर गए।शाम को कुर्सियां टेबल खुले आकाश के नीचे छत पर पसर जाते।खचाखच भीड़ होती। बहसों की धूल उड़ती रहती।टेबल से टेबल नहीं बल्कि बहसों से बहसें टकराकर एक सार्वजनिक और लोकतांत्रिक गूँज पैदा करतीं।
          पंकज जी ने  बातचीत में बताया कि सरकार इसे बंद कर देना चाहती थी।बड़ी लड़ाई लड़ी गई तब जाकर आज यह चालू है।बनारस की चाय अड़ी से अलग यहाँ की बहसों की दिशा गति और विस्तार होती रही है।
            इंडियन कॉफी हाउस में बैठकर समयांतर के कई विशेषांक तय हुए हैं। धरने प्रदर्शन और आयोजन पर बहसें हुई हैं।
         दिल्ली के साहित्य,विश्वविद्यालय,प्रकाशन,अखबार,राजनीति,संस्कृति,हैरिटेज,लेखक संगठन,भोजन,ठेले पटरी के लोग से लेकर देश दुनिया की हर तरह की बात बहस का हिस्सा होती रही है।
          सोशल मीडिया कभी भी इतना सोशल नहीं हो सकता कि साँस में भरती हुई कॉफी की खुशबू के साथ दोस्तों की आँखों की ऊष्मा को लाइव महसूस करा सके।
          लगभग 9 बजे तक हमारी बहसें होती रहीं।बनारस से भारत तक।फिर हम लोग एक साथ सीढियां  नापते हुए उतरे।
         रीगल के आगे हम सबने सड़क पार की।फिर मेट्रो पर चढ़कर बिछुड़ गए।
       इंडियन कॉफी हाउस कभी जरूर जाइए।कनाट प्लेस के बाबा खड़क सिंह मार्ग पर यह जगह आज भी आपको शुकून देगी।कॉफी कैफे डे की हाइ फाइ से अलग देशी स्वाद और स्वभाव मिलेगा।ग्लोबल समय में ग्लोकल स्वाद।
        कॉफी हाउस जाने से पहले अगर पंकज बिष्ट का इंडियन कॉफी हाउस केंद्रित उपन्यास लेकिन दरवाजा से गुजर लीजिए तब जगह का मज़ा दुगुना हो जाएगा।
    मतलब दिल का दरबाजा खुल जाएगा।❤😃

मेरे लिए दिल्ली 'मंडी हाउस' है:रामाज्ञा शशिधर

📒दिल्ली फाइल-1📒
🌜दिल्ली दूर नहीं उर्फ़ बेगूबनादिली🌛
🎈❤🎈❤🎈❤🎈❤🎈❤🎈
मित्रो!तो आ ही रहा हूँ।
मेरे लिए बेगूसराय खेत है,बनारस खलिहान,और दिल्ली मंडी।एक में बोता काटता हूँ,दूसरे में ओसाता-फटकता हूँ और तीसरे को सप्लाइ करता हूँ।
         दिल्ली तो दिल्ली है लेकिन इससे अलग भी मेरी एक दिल्ली है👉जहां मेरे निर्माण के चिह्न बिखरे पड़े हैं।मदनपुर खादर,जामिया,बटला हाउस,दिलशाद गार्डन,शाहदरा,लक्ष्मीनगर,मयूरविहार,मुनिरका,कटवरिया सराय,जेनयू,आईटीओ,मंडी हाउस,श्रीराम सेंटर,डीयू,कनॉट प्लेस,इंडियन कॉफी हाउस,दरिया गंज,जामा मस्जिद,ताल कटोरा,आरएमएल...साहित्य अकादेमी,तीन मूर्ति लाइब्रेरी,सेंट्रल सेक्रेटेरियट लाइब्रेरी, दूरदर्शन भवन,कंस्टीट्यूशन क्लब...।
        जगहें आदमी की मिट्टी को चाक की तरह गढ़ती हैं।
        और वे कुम्हार जिनमें सफरी, मजूर,मित्र,शिक्षक,लेखक,पत्रकार,डीटीसी ड्राइवर,खानसामे,नटकिए,फुटपाथ किंग,रात के आवारा।
        ...और संघर्ष के बीच सफर की रूह को सितारों की रोशनी से भरनेवाली झिलमिलाती किरनें जन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता।
             बनारस सभ्यता का एक ऐसा ताकतवर गुरुत्व क्षेत्र है जिससे वही निकल सकता जो बुद्ध,कबीर,हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर सिंह जैसा हौसला रखता हो।
          मैं इधर जम गया था।बर्फ की तरह नहीं, गाद की तरह।इस सिल्ट को मानसूनी पानी का नया रेला काटने आया।उस रेले का नाम है घुम्मकड़ उस्ताद राहुल सांकृत्यायन।राहुल बाबा की मुहब्बत में जब मैं हिमालय के दर्रों में भटक सकता हूँ तो दिल्ली कितनी दूर है!
           वे मेरे इतने प्रिय हैं कि सिमरिया से कनैला तक घुमाते रहते हैं।काशी के माउरबाजों और नक्कालों से बचाने का गुप्त मंत्र भी देते रहते हैं।
            23 से 25 दिल्ली में आप उस्तादों,मित्रों और विद्यार्थी साथियों से आत्मीय रंग मिलेगा इसकी गारंटी है।
          फिर कहूँगा 'बेगूबनादिली'।

22 अगस्त, 2018

क्या प्रेमचंद सांप्रदायिक और संकीर्ण राष्ट्रवादी थे:रामाज्ञा शशिधर

📚चबूतरा विमर्श सम्पन्न📚
📘डेस्क बनारस📘प्रस्तुति:अरुण तिवारी📘
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✒प्रेमचंद का राष्ट्रवाद कटघरे में खड़ा है:मालवीय चबूतरा✒
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आज मालवीय चबूतरा ने 'प्रेमचंद : राष्ट्रवाद की खोज' शीर्षक पर सृजनात्मक विमर्श किया।          
       मालवीय चबूतरा के संस्थापक और हिंदी के सरोकारी कवि-आलोचक डा. रामाज्ञा शशिधर का का वक्तव्य काफी सारगर्भित तथा प्रेरणादायक रहा।
           रामाज्ञा गुरु जी ने कहा कि प्रेमचंद भारत की नई राष्ट्रीय और जनवादी चेतना के प्रतिनिधि साहित्यकार हैं। वे स्वाधीनता संग्राम में साधारण भारतीय जनता की जीवंतता,प्रतिरोधी शक्ति और आकांक्षा के अमर चितेरे हैं। 
            रामाज्ञा शशिधर सर ने आगे बताया कि स्वाधीनता संग्राम के दौर में प्रेमचंद के द्वारा सृजित स्वराज्य तथा भारतीयता की खोज को  आज चुनौती दी जा रही है। प्रेमचंद पर कई दिशाओं से हमले हो रहे हैं।एक ओर दक्षिणपंथी विचारधारा के द्वारा उनके राष्ट्रवाद को एप्रोप्रिएट करने की कोशिश जारी है दूसरी ओर  दलित चिंतको ने जिसमें धर्मवीर शामिल हैं, ने प्रेमचंद पर हमला किया है।
       रामाज्ञा सर ने आगे बताया कि दलित चिंतन ने कफ़न का कुपाठ करते हुए  कहा कि  बुधिया के  पेट में किसी जमींदार का लड़का हो सकता है।
                 कमल किशोर गोयनका और अनेक दक्षिणपंथी लेखकों ने प्रेमचंद को हिंदुत्ववादी विचारधारा के लेखक सिद्ध करने की साजिश की है। डा शशिधर  ने आगे बताया कि अखिल भारतीय हिंदुत्वमूलक विचारधारा ने प्रेमचंद के साहित्य को अपहृत करने की कोशिश की है।  देश प्रेम की कहानियां, हिन्दू मुस्लिम जीवन की कहानियाँ,दयानंद,विवेकानंद,राम,कृष्ण आदि पर आधारित निबंधों के आधार पर दक्षिणपंथी शक्तियां प्रेमचंद को हिन्दुत्वादी राष्ट्रवादी  विचारधारा का लेखक घोषित करने में लगे हैं। गोयनका ने तो प्रेमचंद के बैंक बैलेंस का भी पता लगा लिया और कहा कि वे समृद्ध लेखक थे।
         डा रामाज्ञा गुरु जी ने कहा कि प्रेमचंद के साहित्य का समाज हिंदुत्व और इस्लाम द्वारा विभाजित नहीं है। साधारण पाठक अपने सहज बोध से प्रेमचंद को अपनाता है। बहुत सी विचलित करने वाली चीजें सतह पर हैं। आंधी की तरह वे हमें झकझोर देती हैं। सतह के नीचे जल की गहराई में हमारे मानवीय संस्कार हैं, ये संस्कार हमें विचलित होने से बचाते हैं। आज लगता है कि हिंदू समाज अलग है, मुस्लिम समाज अलग है। जो इस अलगाव के लिए जिम्मेदार हैं, वे भी मानते हैं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। इस अलगाव को खत्म करना है तथा शोषणमुक्त मानवीय संबंधो के समाज का निर्माण करना है। प्रेमचंद की यह प्रासंगिकता है।
          डा शशिधर  ने कहा कि आज प्रेमचंद के राष्ट्रवाद पर व्यापक विमर्श की जरूरत है। प्रेमचंद मानते हैं कि जिस समाज का कोई अतीत नहीं होता  उस समाज का बेहतर भविष्य भी नहीं होता है।प्रेमचंद हमारी विरासत हैं। वे असांप्रदायिक, क्रांतिकारी और भारतीयता से परिपूर्ण लेखक हैं।
             रामाज्ञा शशिधर ने आगे कहा कि आज विचार की जगह प्रचार तथा मूल्य की जगह बाजार ले रहा है। आलोचना का विकास पठन पाठन से ही बेहतर बनाया जा सकता है।
       रामाज्ञा शशिधर ने आगे कहा कि आज शिक्षा में नवाचार की उपेक्षा हो रही। आज नवाचार का गंभीर संकट है।
       प्रेमचंद का पूरा लेखन खास तरह के राष्ट्रवाद की खोज है।
       रामाज्ञा शशिधर ने कहा कि फ्रेडरिक जेमसन की स्थापना आज गौरतलब है कि 'उपन्यास राष्ट्रीय रूपक होता है '।इस कसौटी पर प्रेमचंद के उपन्यासों से एक सबाल्टर्न राष्ट्र का चित्र बनता है।
         रामाज्ञा शशिधर ने कहा कि उपन्यास पश्चिम में मध्यवर्ग की कोख से उत्पन्न हुआ है लेकिन भारत में  उपन्यास उपनिवेश के विरुद्ध संघर्ष के कारण पैदा हुआ।
         प्रेमचंद ने दो स्तरों पर शोषण को लक्षित किया है। पहले स्तर पर साम्राज्यवाद दूसरे स्तर पर देशी सामंती मनुवादी व्यवस्था को जिम्मेदार माना है।
          साम्राज्यवाद और देशी सामंतवाद के बीच जो गठबंधन है उससे मुक्ति की पुरजोर वकालत करते हैं प्रेमचंद।
             सहजानंद सरस्वती का किसान आंदोलन माओ के  चीनी किसान आंदोलन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आंदोलन था। आज विरासत विस्मृति की राजनीति की शिकार है।आज दुनिया भर में किसान सभ्यता की आखिरी लड़ाई लड़ी जा रही है।
         रामाज्ञा शशिधर ने किसान-आदिवासी संघर्ष और स्त्री-दलित संघर्ष को अलगाते हुए कहा कि किसान आदिवासी संघर्ष यदि भूमि और प्रकृति के मूल से कट जाते तो वे अस्तित्वहीन हो जाएंगे जबकि स्त्री दलित संघर्ष की भूगोल शिफ्टिंग से अस्तित्वमूलक फर्क नहीं पड़ता। जल जंगल तथा जमीन की लड़ाई सिर्फ संपत्ति की लड़ाई नहीं है। वह सामाजिक अस्तित्व और संस्कृति की लड़ाई है,अपनी जड़ों से जुड़े रहने तथा जीवित रहने की लड़ाई है। किसान तथा आदिवासी मूल स्थान से विस्थापित होते हैं तो उनका वजूद खत्म हो जाता है।
        शशिधर सर ने कहा कि प्रेमचंद की राष्ट्रवादी सोच उनके प्रसिद्ध निबंध "सांप्रदायिकता और संस्कृति " में देखी जा सकती है। वे कहते हैं कि उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें ।संस्कृति अमीरो का, पेटभरों का, बेफिक्रों का व्यसन है।
       सर ने आखिर में बताया कि रंगभूमि में किसान संस्कृति तथा पूंजीवादी उद्योगीकरण की संस्कृति का द्वंद्व है। पांडेयपुर की लड़ाई आज राष्ट्रीय लड़ाई है। किसान दलित तथा आदिवासियों की लड़ाई मानवीय अस्तित्व के सतत विकास की लड़ाई है।
       सर जी ने कहा कि आज लमही सिर्फ नास्टेल्जिया में रहनेवाला गांव रह भर है। वह शहर के पेट में आ गया है।आज भारत का राष्ट्रवाद प्रेमचंद और लमही की तरह हिंदुत्व और कारपोरेट द्वारा निगमित,नियंत्रित और संकुचित राष्ट्रवाद है।जरूरत है प्रेमचंद के राष्ट्रवाद की पुनर्खोज की।