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22 अगस्त, 2018

क्या प्रेमचंद सांप्रदायिक और संकीर्ण राष्ट्रवादी थे:रामाज्ञा शशिधर

📚चबूतरा विमर्श सम्पन्न📚
📘डेस्क बनारस📘प्रस्तुति:अरुण तिवारी📘
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✒प्रेमचंद का राष्ट्रवाद कटघरे में खड़ा है:मालवीय चबूतरा✒
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आज मालवीय चबूतरा ने 'प्रेमचंद : राष्ट्रवाद की खोज' शीर्षक पर सृजनात्मक विमर्श किया।          
       मालवीय चबूतरा के संस्थापक और हिंदी के सरोकारी कवि-आलोचक डा. रामाज्ञा शशिधर का का वक्तव्य काफी सारगर्भित तथा प्रेरणादायक रहा।
           रामाज्ञा गुरु जी ने कहा कि प्रेमचंद भारत की नई राष्ट्रीय और जनवादी चेतना के प्रतिनिधि साहित्यकार हैं। वे स्वाधीनता संग्राम में साधारण भारतीय जनता की जीवंतता,प्रतिरोधी शक्ति और आकांक्षा के अमर चितेरे हैं। 
            रामाज्ञा शशिधर सर ने आगे बताया कि स्वाधीनता संग्राम के दौर में प्रेमचंद के द्वारा सृजित स्वराज्य तथा भारतीयता की खोज को  आज चुनौती दी जा रही है। प्रेमचंद पर कई दिशाओं से हमले हो रहे हैं।एक ओर दक्षिणपंथी विचारधारा के द्वारा उनके राष्ट्रवाद को एप्रोप्रिएट करने की कोशिश जारी है दूसरी ओर  दलित चिंतको ने जिसमें धर्मवीर शामिल हैं, ने प्रेमचंद पर हमला किया है।
       रामाज्ञा सर ने आगे बताया कि दलित चिंतन ने कफ़न का कुपाठ करते हुए  कहा कि  बुधिया के  पेट में किसी जमींदार का लड़का हो सकता है।
                 कमल किशोर गोयनका और अनेक दक्षिणपंथी लेखकों ने प्रेमचंद को हिंदुत्ववादी विचारधारा के लेखक सिद्ध करने की साजिश की है। डा शशिधर  ने आगे बताया कि अखिल भारतीय हिंदुत्वमूलक विचारधारा ने प्रेमचंद के साहित्य को अपहृत करने की कोशिश की है।  देश प्रेम की कहानियां, हिन्दू मुस्लिम जीवन की कहानियाँ,दयानंद,विवेकानंद,राम,कृष्ण आदि पर आधारित निबंधों के आधार पर दक्षिणपंथी शक्तियां प्रेमचंद को हिन्दुत्वादी राष्ट्रवादी  विचारधारा का लेखक घोषित करने में लगे हैं। गोयनका ने तो प्रेमचंद के बैंक बैलेंस का भी पता लगा लिया और कहा कि वे समृद्ध लेखक थे।
         डा रामाज्ञा गुरु जी ने कहा कि प्रेमचंद के साहित्य का समाज हिंदुत्व और इस्लाम द्वारा विभाजित नहीं है। साधारण पाठक अपने सहज बोध से प्रेमचंद को अपनाता है। बहुत सी विचलित करने वाली चीजें सतह पर हैं। आंधी की तरह वे हमें झकझोर देती हैं। सतह के नीचे जल की गहराई में हमारे मानवीय संस्कार हैं, ये संस्कार हमें विचलित होने से बचाते हैं। आज लगता है कि हिंदू समाज अलग है, मुस्लिम समाज अलग है। जो इस अलगाव के लिए जिम्मेदार हैं, वे भी मानते हैं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। इस अलगाव को खत्म करना है तथा शोषणमुक्त मानवीय संबंधो के समाज का निर्माण करना है। प्रेमचंद की यह प्रासंगिकता है।
          डा शशिधर  ने कहा कि आज प्रेमचंद के राष्ट्रवाद पर व्यापक विमर्श की जरूरत है। प्रेमचंद मानते हैं कि जिस समाज का कोई अतीत नहीं होता  उस समाज का बेहतर भविष्य भी नहीं होता है।प्रेमचंद हमारी विरासत हैं। वे असांप्रदायिक, क्रांतिकारी और भारतीयता से परिपूर्ण लेखक हैं।
             रामाज्ञा शशिधर ने आगे कहा कि आज विचार की जगह प्रचार तथा मूल्य की जगह बाजार ले रहा है। आलोचना का विकास पठन पाठन से ही बेहतर बनाया जा सकता है।
       रामाज्ञा शशिधर ने आगे कहा कि आज शिक्षा में नवाचार की उपेक्षा हो रही। आज नवाचार का गंभीर संकट है।
       प्रेमचंद का पूरा लेखन खास तरह के राष्ट्रवाद की खोज है।
       रामाज्ञा शशिधर ने कहा कि फ्रेडरिक जेमसन की स्थापना आज गौरतलब है कि 'उपन्यास राष्ट्रीय रूपक होता है '।इस कसौटी पर प्रेमचंद के उपन्यासों से एक सबाल्टर्न राष्ट्र का चित्र बनता है।
         रामाज्ञा शशिधर ने कहा कि उपन्यास पश्चिम में मध्यवर्ग की कोख से उत्पन्न हुआ है लेकिन भारत में  उपन्यास उपनिवेश के विरुद्ध संघर्ष के कारण पैदा हुआ।
         प्रेमचंद ने दो स्तरों पर शोषण को लक्षित किया है। पहले स्तर पर साम्राज्यवाद दूसरे स्तर पर देशी सामंती मनुवादी व्यवस्था को जिम्मेदार माना है।
          साम्राज्यवाद और देशी सामंतवाद के बीच जो गठबंधन है उससे मुक्ति की पुरजोर वकालत करते हैं प्रेमचंद।
             सहजानंद सरस्वती का किसान आंदोलन माओ के  चीनी किसान आंदोलन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आंदोलन था। आज विरासत विस्मृति की राजनीति की शिकार है।आज दुनिया भर में किसान सभ्यता की आखिरी लड़ाई लड़ी जा रही है।
         रामाज्ञा शशिधर ने किसान-आदिवासी संघर्ष और स्त्री-दलित संघर्ष को अलगाते हुए कहा कि किसान आदिवासी संघर्ष यदि भूमि और प्रकृति के मूल से कट जाते तो वे अस्तित्वहीन हो जाएंगे जबकि स्त्री दलित संघर्ष की भूगोल शिफ्टिंग से अस्तित्वमूलक फर्क नहीं पड़ता। जल जंगल तथा जमीन की लड़ाई सिर्फ संपत्ति की लड़ाई नहीं है। वह सामाजिक अस्तित्व और संस्कृति की लड़ाई है,अपनी जड़ों से जुड़े रहने तथा जीवित रहने की लड़ाई है। किसान तथा आदिवासी मूल स्थान से विस्थापित होते हैं तो उनका वजूद खत्म हो जाता है।
        शशिधर सर ने कहा कि प्रेमचंद की राष्ट्रवादी सोच उनके प्रसिद्ध निबंध "सांप्रदायिकता और संस्कृति " में देखी जा सकती है। वे कहते हैं कि उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें ।संस्कृति अमीरो का, पेटभरों का, बेफिक्रों का व्यसन है।
       सर ने आखिर में बताया कि रंगभूमि में किसान संस्कृति तथा पूंजीवादी उद्योगीकरण की संस्कृति का द्वंद्व है। पांडेयपुर की लड़ाई आज राष्ट्रीय लड़ाई है। किसान दलित तथा आदिवासियों की लड़ाई मानवीय अस्तित्व के सतत विकास की लड़ाई है।
       सर जी ने कहा कि आज लमही सिर्फ नास्टेल्जिया में रहनेवाला गांव रह भर है। वह शहर के पेट में आ गया है।आज भारत का राष्ट्रवाद प्रेमचंद और लमही की तरह हिंदुत्व और कारपोरेट द्वारा निगमित,नियंत्रित और संकुचित राष्ट्रवाद है।जरूरत है प्रेमचंद के राष्ट्रवाद की पुनर्खोज की।
      
    

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