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25 अक्टूबर, 2017

ठुमरी गायिका गिरिजा देवी बनारस संगीत घराने की आत्मा हैं


पूरब अंग की अप्रतिम आवाज़ कल खामोश हो गई।बनारस की गलियों घाटों से लेकर संकट मोचन संगीत समारोह तक ठुमरी कजरी चैती की ऐसी उपशास्त्रीय आवाज़ जिसे सुनने के लिए
एक पनेरी से लेकर पंडित तक बेकरार रहता था।8 मई 1929 को गुलाम बनारस में जन्मी गिरिजा देवी को हारमोनियम बचपन में ही मिल गया था।ज़मींदार रामानंद राय की यह संगीत
और स्त्री के संबंधों के प्रति बनारसी प्रगतिशीलता ही होगी कि 9 साल की नन्हीं बेटी के हाथों वाद्ययंत्र और होठों पर लोकगीत भरना शुरू कर दिया जो 24 अक्टूबर 2017 को अंतिम साँस के साथ ही छूट पाए।
         गिरिजा देवी बनारस के उपशास्त्रीय संगीत घराने की चलती फिरती प्रयोगशाला थीं।पुरबिया मिट्टी से लोकधुन और लोकगीत को चुनकर शास्त्रीय भट्ठी में तरासने का और उसे विश्व के संगीत पटल पर फ़ैलाने का उनका कार्य अनवरत चलता रहा।वे बनारसी ज़िंदादिली और सामाजिक कला की अनूठी मिसाल थीं।ठुमरी साम्राज्ञी के नाम से सुचर्चित अप्पा जी का गायन आगे आगे स्पेस बनाता था और पुरस्कार सम्मान पीछे पीछे लटककर अपनी विश्वसनीयता अर्जित करते थे।गिरिजा जी ने बीएचयू और आइटीसी रिसर्च अकादेमी कोलकाता में संगीत फेकल्टी के रूप में जितना बड़ा योगदान दिया उससे बड़ा योगदान भोजपुरिया लोकधुनों और लोकशब्दों को अनेक महान संगीत साधकों के सहयोग से राष्ट्रीय वैश्विक श्रोता वर्ग तैयार कर किया।बनारस घराने की कई पीढ़ियों का निर्माण गिरिजा देवी के हाथों हुआ है।    
            संगीत और शब्द के साधकों से अपेक्षा है कि वे गिरिजा जी के अनेक गीतों को फिर से सुनकर आएं और चबूतरा चर्चा में बनारस घराने की महान गायिका को अनूठी लोक श्रद्धांजलि दें।

17 अक्टूबर, 2017

अस्सी के चाय घर में इज्जत घर पर बहस


का गुरू?
हाँ गुरू!
कहाँ हउअन?
नजरबंद!
देश में या विदेश में?
हुकुलगंज की जेल में।
मुचलका के देहलस?
नेशनल पांडेय।
जमानत के लिहलस?
सेकुलर तिवारी
कौने ज्वाइन करोगे?लाल सफ़ेद या नारंगी?
भार में जाए दुनिया हम बजाइब हरमुनिया।चाय पार्टी ही ठीक हौ।
---और जोर के ठहाके से पहले छत हिलती है,फिर बेंच हिलती है,फिर गिलास हिलता है,फिर चीनी हिलती है,फिर होठ हिलते हैं,फिर जुबान हिलती है।अंत में दरबे के भीतर पूरा जहान हिलता है।
       पूरे तीन साल चार महीने सोलह दिन के बाद एक होनी घटना घटित हुई।ठीक 2 अक्टूबर के दिन मैं पप्पू चाय की दूकान पर पप्पू,मनोज और डब्बी के सैकड़ों ओरहन और आदेश के बाद गांधी बाबा को सुमरिते हुए पहुंचा। उम्मीद थी कि वे भूल गए होंगे।नजारा था कि वे इंतज़ार ही कर रहे थे।उन्होंने मुझे कोरियन बम की तरह या चीनी झालर की तरह या पाकिस्तानी आतंकी की तरह या जेनयू के कन्हैया कुमार की तरह घूरा और दाएं से बाएं की ओर ईशारा करते हुए बैठ जाने का निर्देश दिया।
कहाँ थे?
बीमार था।
कौन सा रोग हुआ था।
नमोफोबिआ!
ई कोई नया रोग बा?
जाँच में कुछ नहीं आया।
तो?
डॉक्टर ने कहा-कोई पुरानी जगह और साथी को लैक कर रहे हो।फिर से पकड़ लो।
आगे?
मैंने जवाब दिया-क्या पप्पू की चाय दूकान और नेशनल पांडेय
से वाद विवाद हो सकता है?
फिर डॉक्टर ने क्या कहा?
कहा-तुम तो खुद डॉक्टर हो।अंग्रेजी के चक्कर से बचो।हिंदी वाली ही चलाओ।
-अब समझ में आइल गुरु ई दरबा के महत्व।हर जगह मुह पे ताला लागल हौ,कैम्पस के महटर केवल पीएम के क्षेत्र  डेबिट क्रेडिट एटीएम से अकेले में एकालाप करत हौ।बाकी इहै दरबा
बचल बा जेकर कोई झाँट नहीं उखाड़ पैलन।
-लेकिन इहाँ तो कीर्तनिया ही बचे हैं।
-गुरू।उधर देख।सेकुलर तिवारी आ रहे हैं।
        हाथ में छड़ी।नाक पर चश्मा।पेंट पर थ्री पीस।धीरे धीरे शनिचरी चाल।जैसे 1942 में बलिया से चले और 2017 में बनारस पहुंचे हो।नजदीक आने पर पता चला कि बनारस में घूम रहे इनदिनों मुखौटा मोदी की तरह ई कोई सेकुलर उपाध्याय हैं।नए ही जमे हैं।किसी पुराने को उखाड़कर।
-मेरा जवाब-सेकुलर तिवारी की खोज में आया हूँ।बहुत सारे मुखौटेबाज सेकुलरों की तरह प्रो सेकुलर तिवारी भी मालवीय
चबूतरे से फरार हैं।टेंस के माहौल में कैम्पस की ऑक्सीजन तक छोड़ दी है।सुना है जब से राज्य का लॉ एन्ड ऑर्डर हिंदुत्व के हाथ में गया है उन्होंने गांधी से कम्प्लीट पल्ला झाड़ लिया है।
-हाँ।जब से पता चला है कि चाय में गाय का दूध ही पड़ता है बकरी का नहीं।सेकुलर तिवारी नेशनल पांडेय से बिदक गए हैं।
       बहस से इलाज जारी है।पहली चाय गांधीवादी।दूध वाली।सबने पी।दूसरी चाय दक्षिणपंथी।निम्बूवाली।सबने पी।तीसरी चाय वामपंथी।प्योर लिकर।ढाई ने पी।अंतिम दौर में कॉफी।पूंजीवादी।एक ने पी।
        एक ज़माना था जब कहवाघर मशहूर होता होगा।उन्हें सरकारों और बुद्धिजीवियों ने बारी से खत्म कर दिया।आजकल दो ही घर देश में मशहूर हैं।निकम्मे गपोड़ियों और बकैतों का पप्पू चायघर और नमो नमो का इज्जत घर।बाकी देश का बड़ा हिस्सा तिब्बती लामा या बर्मी रोहिंग्या के हाल में पहुँचाया जा रहा है।मैं कन्फ्यूज हूँ कि यहां मैं ईलाज कराने आया हूँ या लाईलाज होने।इसे चार्वाक पर छोड़िए।

08 अक्टूबर, 2017

मालवीय चबूतरे पर 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' निबंध का जन पाठ

प्रेमचंद की निधन तिथि पर विशेष प्रस्तुति-
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यह सत्ता के वर्चस्व और दमन का समय है।यह विचारों की हत्या और आत्महत्या का भी समय है।इसलिए किस्सा कहानी से ज्यादा माकूल कार्य है विचार को साहस के साथ विमर्श के केंद्र में लाना।चबूतरा भले गोल हो लेकिन ज्ञान को चौकोर होना चाहिए।चबूतरा चर्चा की कड़ी में आज प्रेमचंद की निधन तिथि
पर उनके ज्वलन्त निबंध 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' का लोक पाठ हुआ।विद्यार्थी-शिक्षकों ने निबंध पर स्वस्थ वाद विवाद संवाद किया।
           साम्प्रदायिकता और संस्कृति निबंध औपनिवेशिक भारत में 1934 में लिखा गया।2017 में उसके सौ साल पूरे होने में 17 साल हैं।निबंध की हर पंक्ति आज के भारत को समझने और अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने की मशाल थमाती है।
         निबंध का पाठ मैंने(रामाज्ञा शशिधर) किया।उसके बाद शुरू हुआ वाद विवाद संवाद का सिलसिला।आडंबर और आत्ममुग्धता से मुक्त
ज्ञानमय वातावरण में 12 तर्कशील विद्यार्थियों ने न केवल सारगर्भित और सरोकारी वक्तव्य दिए बल्कि चबूतरे के साल भर के इतिहास में पहली बार शिक्षकों के सामने सवालों और जिज्ञासाओं की झड़ी लगा दी।नेहा,अरुण वर्मा,आदित्य तिवारी,सुनील,पंकज कुमार,राघवेंद्र पांडेय,मनीष यादव,किशन,विमल,विवेक मिश्र आदि के सक्रिय वैचारिक बहस से चबूतरा जीवंत और ज्ञान दीप्त हो उठा।
        मुख्य वक्तव्य देते हुए प्रो सत्यदेव त्रिपाठी ने कहा कि प्रेमचंद आर्थिक संस्कृति के व्याख्याता लेखक हैं।संसार में आज सिर्फ आर्थिक संस्कृति का बोलबाला है। सत्ता हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का विभेद दिखाकर समाज में विभाजन और तनाव पैदा करती है।राजनीति अपने वर्चस्व के लिए खानपान,पहनावे,भाषा,कला संगीत को हिन्दू मुस्लिम के नाम पर बाँटना चाहती है। प्रेमचंद इस विभाजन को ख़ारिज करते हैं।संस्कृति समुदाय और भूगोल की उपज है।उन्होंने कहा कि बंगाल,दक्षिण भारत और पश्चिमी भारत के हिन्दू मुस्लिम की जीवन पद्धति स्थानिक विशेषताओं से बनती है न कि धर्म से।प्रेमचंद संस्कृति को धर्म से अलग कर देखते हैं।
       प्रो श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि प्रेमचंद हिंदुत्ववादी गठबंधन के विरुद्ध हैं।साम्प्रदायिकता को सीधे रूप में आने में लज्जा आती है।प्रेमचंद साहित्य को दर्शन,आनंद और उपयोगिता से जोड़ते हुए भी साहित्य के केंद्र में आनंद को रखते हैं।आज के लेखकों का साहित्यिक उद्द्येश्य उपयोगितावादी हो चला है।प्रेमचंद के मूल्यबोध की रक्षा के लिए हमें हर तरह की क़ुरबानी देनी चाहिए।
         नेहा कुमारी ने कहा कि प्रेमचंद अपने निबंध में सत्ताधारी इतिहास के खात्मे की वकालत करते हैं।उन्होंने सवाल किया कि इतिहास और मिथक पर नए सिरे से बहस की जरूरत आ गई है।
        राघवेंद्र पांडेय ने कहा कि विभाजनकारी और सांप्रदायिक चेतना सत्ता के मूल में होती है। इसलिए वह समाज को बांटकर शासन करती है।
         पंकज कुमार ने कहा कि समाज जीवित संस्कृति का निर्माता होता है। सत्ताएं साम्प्रदायिकता को मेनुपुलेट कर अपना स्वार्थ सिद्ध करती हैं।संस्कृति और परंपरा के भेद को समझना भी जरूरी है।आज संस्कृति की नई परिभाषा की जरूरत है।हम एक ओर फेसबुक और मास मीडिया को भी तात्कालिक संस्कृति के भीतर रखते हैं, वहीँ संस्कृति के नाम पर लम्बे अतीत का बोझ ढोने के लिए जनता को मजबूर
किया जाता है।
         अरुण वर्मा ने कहा प्रेमचंद हिन्दू मुसलमान की सारी कमियों और खूबियों को निर्मम ढंग से रखते हैं।दोनों क्षेत्रीय संस्कृति के वाहक हैं न कि अन्य चीजों के।
          आदित्य तिवारी ने वीएस नॉयपाल के संस्कृति चिंतन को प्रेमचंद के निबंध से जोड़ते हुए कहा कि संस्कृति किसी भी समाज की आत्मा होती है। राजनीतिक फायदे के लिए उसका दुरूपयोग मानवता विरोधी कार्य है।
          मनीष यादव ने कहा कि प्रेमचंद सत्ता द्वारा संस्कृति के विभेदीकरण और सतहीकरण के खिलाफ हैं।
           विवेक मिश्र ने कहा कि जब सबका खून लाल है,भूख प्यास,जीव मृत्यु का नियम एक है,तब साम्प्रदायिकता का जन्म आदमी के हित में किस तरह हो सकता है।
          विमल कुमार ने कहा कि प्रेमचंद का यह कथन प्रासंगिक है कि संस्कृति अमीरों का,पेटभरों का,बेफ़िक्रों का व्यसन है।दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है।
         किशन ने कहा कि समाज को पंडे,पुरोहित,मौलवी बाँट रहे हैं।अर्थ से मारी गई जनता सांप्रदायिक अनर्थ का शिकार होती है।भारी जनसमुदाय को इस विभाजन का खामियाज़ा भुगतना पड़ता है।
      ज्ञान विमर्श की यह कड़ी ऐतहासिक और बदलावकारी है।
    मालवीय चबूतरे के शिक्षा विमर्श में साझेदार बुद्धिजीवियों के प्रति आभार।
             -रामाज्ञा शशिधर,संस्थापक,मालवीय चबूतरा
               # 009454820750

03 अक्टूबर, 2017

भारत राष्ट्रवाद से छद्म राष्ट्रवाद की ओर


आज चबूतरा वाले गांधी जी का जन्मदिन है।संयोग से बनारस और बीएचयू में भी गांधी चबूतरा है।सबसे पहले उन्हें प्रणाम।
          आजकल गांधी जी की सेहत ठीक नहीं।स्वराज्य,सत्य,अहिंसा,चरखा, सत्याग्रह सब बीमार हैं।यह भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है।
         यह कौन सा मानवीय मूल्य है?यह कौन सी देशभक्ति है?यह कौन सा सुरक्षातन्त्र है?यह किस तरह से भारत माता की पूजा है?
         हर तरफ हिंसा,दमन,डंडा,धमकी,जूनून,उन्माद,अभियक्ति पर रोक,हत्या,जेल,धाराएं,मुकदमे,उत्पीड़न,अवसाद,निराशा,मंदी।हर तरफ एक तरह की भाषा,एक तरह का जुमला,एक तरह से जीने सोचने खाने पीने हंसने बोलने जीने मरने का आतंक।
        19वीं और 20वीं सदी का भारतीय राष्ट्रवाद डंडा और गुंडा विरोधी था।वह मानवमुक्ति का इंद्रधनुषी राष्ट्रवाद था।
सभ्यता के इतिहास में आदमी के लिए जानवर मारा गया लेकिन अब जानवर के लिए आदमी मारा जा रहा है।
       आधुनिक युग में लेखक और नेता के रिश्तों के तीन मॉडल को देखिए।एक माडल टैगोर और गांधी का था।हर मुद्दे पर टकराव लेकिन बराबर की स्वीकृति।दिनकर और नेहरू का सम्बन्ध जहां समर्थन और विरोध साथ साथ।इन सबके विपरीत आजकल 21 वीं सदी में मार दिए गए लेखक कलबुरगी और वर्तमान सत्ता का सम्बन्ध।
         इस व्यवस्था में मुसलमान,लेखक,स्त्री,छात्र शिक्षक कोई भी तर्कशील दिमाग और स्वतन्त्र हृदय सुरक्षित नहीं दिख रहा है।
         इसलिए हमें अपनी विरासत की बहुलतावादी चेतना की वापसी जल्द करनी होगी।

01 अक्टूबर, 2017

बीएचयू में छात्राओं पर लाठीचार्ज से दुखी हैं प्रोफेसर

चबूतरे पर संवाद जारी: "पहले सत्य फिर आत्मरक्षा"
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पाठक मित्रो!
                  मालवीय चबूतरे ने एक दिन पहले ही 'गुरुदेव' रवीन्द्रनाथ टैगोर के 'महात्मा' को याद किया है।कल  सत्य ,अहिंसा और सभ्यता के समीक्षक महात्मा गांधी की जयंती है।गांधी ने हमें सत्याग्रह की महान शिक्षा दी थी।यह अनायास नहीं है कि बीएचयू के कुलगीत को वैज्ञानिक शांति स्वरूप भटनागर ने सर्वप्रथम न केवल उर्दू में लिखा बल्कि 'पहले सत्य फिर आत्मरक्षा' का गांधीवादी पाठ पढ़ाया।।    आजकल चारों ओर झूठ और आत्मरक्षा का बोलबाला है।झूठ ताल ठोंक कर सत्य का पहरेदार होने का दावा कर रहा है,स्वार्थ अपनी कुर्सी,पद,पदोन्नति,यश,सुविधा और भोग के लिए करुणा का गला घोंट रहा है,अँधेरा डिटर्जेंट का विज्ञापन
करते हुए उजाला उजाला चिल्ला रहा है।
       आजकल सत्य को प्रायोजित और झूठ को सत्यापित बताया जा रहा है।विचार धुंध का शिकार है।ज्ञान ने कायरता का कोट पहन लिया है।सिर्फ तालों और फाटकों में बंद आवाज़ें हैं जो खुले आकाश और बहती हवाओं में फैलना चाहती हैं।वे आवाज़ें हरे पत्तोंवाली टहनियां  और नीले
पंखों वाली चिड़ियाँ होकर 'फ्री विल' को विस्तार देना चाहती हैं।
            आज इतवार है।लेकिन मालवीय चबूतरा पहले की तरह गुलजार नहीं।अधिकांश विद्यार्थी दुर्गा को पूजने और रावण को जलाने अपने घर जा चुके हैं।चाय दूकानदार ने बिक्री का रोना रोते हुए चूल्हा ठंडा कर लिया है।बाहरी तत्वों का भी कम ही भीतर आना हुआ है।सिर्फ नगर के व्यापारियों और प्रायवेट अस्पतालों के सैकडों बाहरी कर्मचारियों ने मालवीय बगिया की भरपूर ऑक्सीजन पी और घर से लाये हुए चाय का वीटी भोज किया।
            मैं जब पहुंचा तो नगर के सेवानिवृत शिक्षकों और कैम्पस के सेवामुखी शिक्षकों का टोटा था।मोबाइल लगाया तो प्रो श्रीप्रकाश शुक्ल का मोबाइल नॉट रिचेबल था।गांधीवादी डा दीनबंधु तिवारी ने पहले ही गांधी चर्चा से मना कर दिया था।बूढ़े वाचस्पति बेटे के साथ कुल्लू की कूल कूल फ़िज़ा का आनंद ले रहे हैं।सेवामुक्त बंबइया प्रो सत्यदेव त्रिपाठी ने सत्य का इज़हार किया कि सर्दी जुकाम और गाँव ने जकड़ लिया है।गतिशील प्रो वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी कहीं नारायण यात्रा पर होंगे और प्रगतिशील प्रोफ़ेसर लोग लेट से सोकर उठते हैं।एक दो शोधार्थी दिखे और एक दो जासूस जो कुछ और ही मूल्य की खोज में होंगे।
           इस बीच अनेक तरह की
मनोयात्राओं से गुज़र रहा था कि प्रो श्रीप्रकाश शुक्ल आधे घन्टे लेट से प्रकट भए।...फिर शुरू हुआ इतवारी चबूतरा संवाद...
       
         ...एक शिक्षक होने के नाते हम दोनों ने शिक्षा और परिवेश से जुडी ढेर सारी घटनाओं को शेयर किया।हम दोनों इस बात पर सहमत थे कि मालवीय चबूतरा 'पहले सत्य फिर आत्मरक्षा' के प्रेरक गांधी और मालवीय के विचार को ज़िंदा रखेगा।
           एक शिक्षक का प्रथम कार्य ज्ञान उत्पादन और छात्र हित के बारे में सोचना है।हमारे लिए जितना महत्वपूर्ण किसी एकलव्य का प्रश्न है उतना ही अहम किसी गार्गी का सवाल।शिक्षक किसी खूंटे में बंधा बैल या थाने का सिपाही नहीं जो लाठी की भाषा बोलने के लिए मजबूर हो।किसी भी शिक्षा संस्थान का एक शिक्षक और छात्र से ज्यादा बड़ा शुभचिंतक कोई नहीं हो सकता।
           कभी कभी सत्ता से चाटूकारिता और अनैतिक लाभ के लिए कुछ शिक्षक पथभ्रष्ट होते रहे हैं जिसकी परम्परा द्रोणाचार्य से आजतक जारी है।ऐसे शिक्षक सुकरात याज्ञवल्क्य बुद्ध और मालवीय की परम्परा के विरुद्ध शिक्षा के चेहरे पर कलंक की तरह हैं।वे वेतनजीवी हो सकते हैं बुद्धिजीवी नहीं।
     
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पाठक मित्रो!
            पिछले सप्ताह दो दुःखद घटनाएं कैम्पस में घटी।पहली यह कि एक छात्रा के साथ छेड़खानी हुई।दूसरी यह कि कैम्पस में जेंडर भेदभाव के प्रश्न पर जब छात्राएं 22 और 23 सितम्बर को गांधीवादी तरीके से विश्वविद्यालय प्रशासन के समक्ष सत्याग्रह कर रही थीं, जो उनका लोकतांत्रिक अधिकार है,तब 23 की आधी रात को जिस तरह से प्रशासन ने उनपर लाठीचार्ज किया वह बेहद गैरमानवीय,गैरलोकतंत्रिक और मालवीयजी  की 'मधुर मनोहर अतीव सुंदर यह सर्व विद्या की राजधानी' के संस्थानिक मूल्य के विपरीत है। लोकतंत्र और मानवाधिकार विरोधी  इस अमानवीय कार्य पर मालवीय चबूतरे ने 24 को अपनी असहमति जताई और न्याय व सुविधा संसाधन का आग्रह भी किया।
            एक शिक्षक का बुनियादी धर्म है कि वे कक्षा में दिए जाने वाले ज्ञान के अनुरूप आचरण करे।सा विद्या या विमुक्तये।विद्या स्वयं और अन्य दोनों की पूर्ण मुक्ति का नाम है।आजकल यह तोतारटंत है।सत्य न्याय और ज्ञान की पूर्णता और पक्षधरता ही शिक्षक धर्म है न कि क्लर्की और अधिकारियों के तलवे चाटते हुए सफलता की सीढियां गिनना।
         हमारे देश की शिक्षा को क्लर्की और पराधीनता का दीमक चाट रहा है उससे मुक्ति की जल्द जरूरत है।केवल बड़बोलेपन और जेनुइन शिक्षकों विद्यार्थियों पर दमन उत्पीड़न करने से हमारी  यूनिवर्सिटीज दुनिया के 200 विश्वविद्यालयों में नहीं आएगी।विश्वविद्यालय में बाहरी भीतरी और मान अपमान की राजनीति ज्ञानविरोधी मूल्य और प्रोपगेंडा है।हमें ऐसे दिमाग पर तरस आता है जो विश्वविद्यालय में शामिल 'विश्व' शब्द की व्याख्या में असक्षम होते हैं या जानबूझ कर इस पर ध्यान नहीं देते।यूनिवर्सिटी शब्द यूनिवर्स से बना है।वह जो अखिल ब्रह्माण्ड के ज्ञान और भाव का प्लेटफॉर्म हो।यह एक मॉडर्न धारणा है मनुस्मृति का परिनियम नहीं।
            आजकल हमारे देश में विश्वविद्यालयों को जातिवाद,क्षेत्रवाद,जेंडर भेदभाव,छद्म राष्ट्रवाद और मैकालेवाद का मुफीद अड्डा बना दिया गया है।विभिन्न तरह की स्वतन्त्र बहसों विचारों और ज्ञान उत्पादन के विरुद्ध सर्टिफिकेट वितरण और सत्र निष्पादन का यांत्रिक स्थल
होने के कारण देश के ऊर्जावान दिमाग गैर उत्पादक गतिविधियों में खप जा रहे हैं।
        दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि मालवीय चबूतरे के
व्यापक ज्ञान संवाद के लघु प्रयास से कुछ निजी स्वार्थ की गाजर घास की खेती करने वाले अमेरिकन दिमागों ने हमारी शैक्षिक और वैचारिक भूमिका को नज़र अंदाज करते हुए व्यक्तिगत राग अलापना शुरू किया और प्रोपगैंडा अभियान चलाया।यह सच है कि हमारी भूमिकाएं अनंत हैं लेकिन यह भी सच है कि हमारी भूमिकाओं का एक सरोकारी इतिहास है।यह स्मृति ध्वंस का समय है और
चुनी हुई स्मृतियों से अपने फायदे की राजनीति का भी।अगर ऐसा नहीं होता तो हमारे कथित बुद्धिजीवी कारपोरेटी मीडिया के एजेंडे पर हर दिन सुर बदल देनेवाले बेसुरा बैंडबाजा के 'होल्डर' नहीं होते।क्या होल्डर दल को जानते हैं?जो केवल बेसुरा फूंकता हो।
            एक शिक्षक का कार्य मुक्ति की शिक्षा प्रदान करना है।मालवीय चबूतरा यह संवाद जारी रखेगा।हमारा कार्य समानता स्वतन्त्रता और सृजन की किसानी करना है और हम अपने पौधों को सींचते रहेंगे।