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08 अक्टूबर, 2017

मालवीय चबूतरे पर 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' निबंध का जन पाठ

प्रेमचंद की निधन तिथि पर विशेष प्रस्तुति-
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यह सत्ता के वर्चस्व और दमन का समय है।यह विचारों की हत्या और आत्महत्या का भी समय है।इसलिए किस्सा कहानी से ज्यादा माकूल कार्य है विचार को साहस के साथ विमर्श के केंद्र में लाना।चबूतरा भले गोल हो लेकिन ज्ञान को चौकोर होना चाहिए।चबूतरा चर्चा की कड़ी में आज प्रेमचंद की निधन तिथि
पर उनके ज्वलन्त निबंध 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' का लोक पाठ हुआ।विद्यार्थी-शिक्षकों ने निबंध पर स्वस्थ वाद विवाद संवाद किया।
           साम्प्रदायिकता और संस्कृति निबंध औपनिवेशिक भारत में 1934 में लिखा गया।2017 में उसके सौ साल पूरे होने में 17 साल हैं।निबंध की हर पंक्ति आज के भारत को समझने और अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने की मशाल थमाती है।
         निबंध का पाठ मैंने(रामाज्ञा शशिधर) किया।उसके बाद शुरू हुआ वाद विवाद संवाद का सिलसिला।आडंबर और आत्ममुग्धता से मुक्त
ज्ञानमय वातावरण में 12 तर्कशील विद्यार्थियों ने न केवल सारगर्भित और सरोकारी वक्तव्य दिए बल्कि चबूतरे के साल भर के इतिहास में पहली बार शिक्षकों के सामने सवालों और जिज्ञासाओं की झड़ी लगा दी।नेहा,अरुण वर्मा,आदित्य तिवारी,सुनील,पंकज कुमार,राघवेंद्र पांडेय,मनीष यादव,किशन,विमल,विवेक मिश्र आदि के सक्रिय वैचारिक बहस से चबूतरा जीवंत और ज्ञान दीप्त हो उठा।
        मुख्य वक्तव्य देते हुए प्रो सत्यदेव त्रिपाठी ने कहा कि प्रेमचंद आर्थिक संस्कृति के व्याख्याता लेखक हैं।संसार में आज सिर्फ आर्थिक संस्कृति का बोलबाला है। सत्ता हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का विभेद दिखाकर समाज में विभाजन और तनाव पैदा करती है।राजनीति अपने वर्चस्व के लिए खानपान,पहनावे,भाषा,कला संगीत को हिन्दू मुस्लिम के नाम पर बाँटना चाहती है। प्रेमचंद इस विभाजन को ख़ारिज करते हैं।संस्कृति समुदाय और भूगोल की उपज है।उन्होंने कहा कि बंगाल,दक्षिण भारत और पश्चिमी भारत के हिन्दू मुस्लिम की जीवन पद्धति स्थानिक विशेषताओं से बनती है न कि धर्म से।प्रेमचंद संस्कृति को धर्म से अलग कर देखते हैं।
       प्रो श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि प्रेमचंद हिंदुत्ववादी गठबंधन के विरुद्ध हैं।साम्प्रदायिकता को सीधे रूप में आने में लज्जा आती है।प्रेमचंद साहित्य को दर्शन,आनंद और उपयोगिता से जोड़ते हुए भी साहित्य के केंद्र में आनंद को रखते हैं।आज के लेखकों का साहित्यिक उद्द्येश्य उपयोगितावादी हो चला है।प्रेमचंद के मूल्यबोध की रक्षा के लिए हमें हर तरह की क़ुरबानी देनी चाहिए।
         नेहा कुमारी ने कहा कि प्रेमचंद अपने निबंध में सत्ताधारी इतिहास के खात्मे की वकालत करते हैं।उन्होंने सवाल किया कि इतिहास और मिथक पर नए सिरे से बहस की जरूरत आ गई है।
        राघवेंद्र पांडेय ने कहा कि विभाजनकारी और सांप्रदायिक चेतना सत्ता के मूल में होती है। इसलिए वह समाज को बांटकर शासन करती है।
         पंकज कुमार ने कहा कि समाज जीवित संस्कृति का निर्माता होता है। सत्ताएं साम्प्रदायिकता को मेनुपुलेट कर अपना स्वार्थ सिद्ध करती हैं।संस्कृति और परंपरा के भेद को समझना भी जरूरी है।आज संस्कृति की नई परिभाषा की जरूरत है।हम एक ओर फेसबुक और मास मीडिया को भी तात्कालिक संस्कृति के भीतर रखते हैं, वहीँ संस्कृति के नाम पर लम्बे अतीत का बोझ ढोने के लिए जनता को मजबूर
किया जाता है।
         अरुण वर्मा ने कहा प्रेमचंद हिन्दू मुसलमान की सारी कमियों और खूबियों को निर्मम ढंग से रखते हैं।दोनों क्षेत्रीय संस्कृति के वाहक हैं न कि अन्य चीजों के।
          आदित्य तिवारी ने वीएस नॉयपाल के संस्कृति चिंतन को प्रेमचंद के निबंध से जोड़ते हुए कहा कि संस्कृति किसी भी समाज की आत्मा होती है। राजनीतिक फायदे के लिए उसका दुरूपयोग मानवता विरोधी कार्य है।
          मनीष यादव ने कहा कि प्रेमचंद सत्ता द्वारा संस्कृति के विभेदीकरण और सतहीकरण के खिलाफ हैं।
           विवेक मिश्र ने कहा कि जब सबका खून लाल है,भूख प्यास,जीव मृत्यु का नियम एक है,तब साम्प्रदायिकता का जन्म आदमी के हित में किस तरह हो सकता है।
          विमल कुमार ने कहा कि प्रेमचंद का यह कथन प्रासंगिक है कि संस्कृति अमीरों का,पेटभरों का,बेफ़िक्रों का व्यसन है।दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है।
         किशन ने कहा कि समाज को पंडे,पुरोहित,मौलवी बाँट रहे हैं।अर्थ से मारी गई जनता सांप्रदायिक अनर्थ का शिकार होती है।भारी जनसमुदाय को इस विभाजन का खामियाज़ा भुगतना पड़ता है।
      ज्ञान विमर्श की यह कड़ी ऐतहासिक और बदलावकारी है।
    मालवीय चबूतरे के शिक्षा विमर्श में साझेदार बुद्धिजीवियों के प्रति आभार।
             -रामाज्ञा शशिधर,संस्थापक,मालवीय चबूतरा
               # 009454820750

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