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09 नवंबर, 2017

सिमरिया घाट को धाम नहीं, गंगा ग्राम कहिए


जिस मिट्टी और माँ के आँचल में मैं पैदा और बड़ा हुआ देखते देखते वह लालचियों के अभिनय का केंद्र हो गई।मैंने अपने बचपन में नानी और माँ के सहारे कल्पवास और जीवन का शुद्ध आध्यत्मिक रूप देखा था।किसानी,किंवदन्तियों,साहित्य कलाओं और लोक की यह धरती  धीरे धीरे बाबाओं और उनके लालची भक्तों के जबड़े में आती गई।खेत पहले कल्पवास में बदले और अब बिना सिमरिया से पूछे उसे सिमरिया धाम में बदल दिया गया।हर बात के लिए मिथक गढ़ा गया और मीडिया का दुरूपयोग हुआ।   सिमरिया और उसकी गंगा को आध्यत्म से चुनावी राजनीति और  बाजार का केंद्र बनाने वाले दिमाग हमारे समाज और संस्कृति के दुश्मन ही माने जाएंगे।वे ही आस्था को भीड़ में बदलने और उसकी मौत के जिम्मेदार हैं।दुर्भाग्य है कि वे कहीं शुद्ध बाबा बनकर खड़े हैं और अनेक बार नेता समाजसेवी पत्रकार एनजीओ संस्कृति रक्षक बनकर सक्रिय होते रहे हैं।हजारों साल से सीने पर एक किसानी सभ्यता और सरल शांत जीवन को पालती हुई एक नदी,खेत और गाँव को रौंदने की यह कहानी किसान,नदी और गाँव की हत्या करने वाले परजीवी वर्ग को दोषी करार देने वाले अफ़साने के रूप में लिखी जानी चाहिए।मैं व्यक्तिगत रूप से भीड़ में हुई मौतों से दुखी हूँ लेकिन उस आडम्बर और नियति  का क्या करूँ जो नदी की लाश पर ढोल इस लिए पीट रहे हैं कि कोई कोमल और प्रकृति प्रेमी उसकी कराह न सुन ले।आप सब से अपील है कि फौरी सतही शब्द कारोबार को गहरे सरोकार में बदलते हुए शोर के भीतर की कराह और आह को सुने गुने और आगे बढ़कर हस्तक्षेप करें।@आग्रही गंगा व् सिमरिया पुत्र रामाज्ञा शशिधर

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