::मालवीय चबूतरे पर नजीर की यादें::
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नजीर के गुजरे 21 साल हो गए।अब तो गंगा का पानी वजू के काबिल भी नहीं।लेकिन लँगड़ा आम और गंगा के साथ नगर बनारस और वतन भारत को बेइंतहां मुहब्बत करने वाले बनारसी गली के जीवंत शायर नजीर को जिस तरह बनारस भूलता जा रहा वह इस शहर की सेहत और रवायत के लिए ठीक नहीं।उन तरक्कीपसंद लेखक संगठनों और लेखकों को
दुःख के साथ कहना पड़ता है-
"कबीर को भूल जाइए
नजीर को भूल जाइए
याद रखिए शिवाला को
फ़क़ीर को भूल जाइए--(उत्तर कबीर कोश से)
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पेश है नजीर बनारसी की बनारस की गलियों और गाउलों को शिनाख्त करती यह चर्चित ग़ज़ल:-
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बनारस की गली
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हर गाम पे हुशियार बनारस की गली में
फ़ितने भी हैं बेदार बनारस की गली में
ऐसा भी है बाज़ार बनारस की गली में
बिक जाएँ ख़रीदार बनारस की गली में
हुशियारी से रहना नहीं आता जिन्हें इस पार
हो जाते हैं उस पार बनारस की गली में
सड़कों पर दिखाओगे अगर अपनी रईसी
लुट जाओगे सरकार, बनारस की गली में
दुकान पे रुकिएगा तो फिर आपके पीछे
लग जाएँगे दो-चार बनारस की गली में
हैरत का यह आलम है कि हर देखने वाला
है नक़्श ब दीवार बनारस की गली में
मिलता है निगाहों को सुकूँ हृदय को आराम
क्या प्रेम है क्या प्यार बनारस की गली में
हर सन्त के, साधु के, ऋषि और मुनि के
सपने हुए साकार बनारस की गली में
शंकर की जटाओं की तरह साया फ़िगन है
हर साया-ए-दीवार बनारस की गली में
गर स्वर्ग में जाना हो तो जी खोल के ख़रचो
मुक्ति का है व्योपार बनारस की गली में।