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24 दिसंबर, 2014

बनारसी बुनकर:मोदी,मौत और मुर्रीबंदी

समयांतर,मासिक के दिसंबर,२०१४ के अंक में प्रकाशित यह रिपोर्ताज बनारसी बुनकरों की तबाही की व्यथा कथा है.

रामाज्ञा शशिधर

बनारस प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है। बनारस हिन्दुओं की आस्था और बुनकरों की आर्थिक गतिशीलता का भी शहर है। वह अपनी सांस्कृतिक संरचना में श्लघु भारत जैसा जनपद है और प्राचीनता में रोम या एथेन्स जैसा। इस नगर और जनपद का रेशम, करघा और कपड़े के कारोबार से रिश्ता महात्मा बुद्ध के समय से है। जातक कथाओं में काशी के चीनांशुक का जिक्र मिलता है। फिलहाल बनारस बुनकरों की वर्तमान तंगहाली,तबाही और मोदी.घोषणा से अखबारों की सुर्खियों में है।

राजू बुनकर की फांसी की रस्सी 


राजू बुनकर के पिता और पुत्र 


नवम्बर के पहले सप्ताह में सांसद एवं प्रधानमन्त्री मोदी बनारस आए। हिन्दुओं और पर्यटकों का केन्द्र अस्सी घाट पर कुदाल चला. जयापुर गांव को गोद लिया गया तथा बुनकर व्यापार सुविधा केन्द्र का प्रेमचन्द्र के गांव लमही से कुछ ही दूरी पर बड़ा लालपुर में उदघाटन हुआ। जयापुर को आदर्श ग्राम बनाने के लिए एनजीओ, प्रशासन, नेता, उद्योग जगत के लोगों ने ऐसा अभियान चलाया है कि हर ग्रामीण पर चार विकासकर्ता सवार हैं. वहीं अस्सी घाट पर मोदी की कुदाल वाली जगह से पचास फीट नीचे तक रेत-मिट्टी गायब है। अस्सी घाट की पाताली सीढ़ी का आखिरी प्लेटफार्म झांक रहा है तथा जिला प्रशासन ने सुबह-ए-बनारस का आगाज करते हुए वेद मंत्र, संगीत, आरती, योग और पूजा पाठ की धूम मचा दी है। इस तरह काशी को क्योटो बनाने की पहली पहल शुरू हो गर्इ है। क्योटो कथा की व्यथा छोडि़ए क्योंकि यह अभी सिर्फ कागजी बाघों का जिम कार्बेट बन पाया है।

07 अक्टूबर, 2014

Corporate Captalism and future of Indian Damocracy

सिद्धार्थ वरदराजन




मोदी के लगातार हो रहे उभार का उनकी हिंदुत्ववादी साख और अपील से कुछ खास लेना-देना नहीं है जैसा कि उनके धर्मनिरपेक्ष आलोचक बता रहे हैं। मोदी आज जहां हैं—सत्ता के शीर्ष पर, वह इसलिए नहीं कि आज देश और भी सांप्रदायिक हो गया है बल्कि इसलिए कि भारतीय कॉरपोरेट-जगत हर दिन अधीर होता जा रहा है। प्रत्येक चुनाव-सर्वेक्षण जो उन्हें सत्ता के और नजदीक पहुंचता दिखाता है, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को नई ऊंचाई पर ले जाता है।



नरेंद्र मोदी किसका प्रतिनिधित्व करते हैं और भारतीय राजनीति में उनका उभार क्या बतलाता है? 2002 के मुस्लिम-विरोधी नरसंहार के बोझ में दबे गुजरात के मुख्यमंत्री के राष्ट्रीय मंच पर आगमन को सांप्रदायिक राजनीति के उभार के चरम के रूप में देखना काफी लुभावना है। निश्चित ही, संघ परिवार के वफादार और हिंदू मध्यवर्ग के एक व्यापक हिस्से में उनके प्रति अंधभक्ति एक ऐसे नेता की छवि के रूप में है जो जानता है कि ‘‘मुसलमानों को उनकी जगह’’ कैसे बतायी जा सकती है। इन समर्थकों के लिए, उनका उन हत्याओं के लिए जो उनके शासन काल में हुईं—प्रतीक रूप में भी माफी मांगने जैसा सामान्य से काम को भी मना करना, उनकी कमजोरी के रूप में नहीं बल्कि ताकत और मजबूती के एक और साक्ष्य के बतौर देखा जाता है।



इस पर भी, मोदी के लगातार हो रहे उभार का उनकी हिंदुत्ववादी साख और अपील से कुछ खास लेना-देना नहीं है जैसा कि उनके धर्मनिरपेक्ष आलोचक बता रहे हैं। मोदी आज जहां हैं—सत्ता के शीर्ष पर, वह इसलिए नहीं कि आज देश और भी सांप्रदायिक हो गया है बल्कि इसलिए कि भारतीय कॉरपोरेट-जगत हर दिन अधीर होता जा रहा है। प्रत्येक चुनाव-सर्वेक्षण जो उन्हें सत्ता के और नजदीक पहुंचता दिखाता है, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को नई ऊंचाई पर ले जाता है। फाइनेंसियल टाइम्स के एक नए लेख में, जेम्स क्रैबट्री ने अडाणी इंटरप्राइजेज में अभूतपूर्व वृद्धि को चिन्हित किया है—पिछले महीने इस कंपनी के शेयर मूल्य में सेंसेक्स में सिर्फ 7 अंक की वृद्धि के मुकाबले 45 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। इसका एक कारण -एक इक्वीटी विश्लेषक ने एफ.टी. (फाइनेंसियल टाइम्स) को यह बताया कि निवेशक मोदी के नेतृत्व में एक ऐसी सरकार की आशा करते हैं जो अडाणी को पर्यावरणीय आपत्तियों के बावजूद मुंद्रा बंदगाह विस्तार की अनुमति देगा। विश्लेषक के शब्दों में—‘‘अत: बाजार कह रहा है कि मोदी और अडाणी की सामान्य नजदीकियों के परे, भाजपा शासन में इसकी मंजूरी मिलना कठिन नहीं होगा।’’



विस्तार के आयाम

‘मंजूरी’ शब्द सौम्य लगता है, पर वास्तव में यह मोदी द्वारा पूंजी के विस्तार की उस इच्छा को समायोजित करने की मंशा को दर्शाता है जो किसी भी रूप में चाहे (विस्तार करे)—जमीन में और खेतों में, ऊर्ध्वाेधर रूप में—जमीन के ऊपर और नीचे, और पार्श्वक रूप में—रिटेल और बीमा क्षेत्र को विदेशी निवेशकों की मांग के अनुरूप खोलने में। और यदि पर्यावरणीय नियम, आजीविका, क्षेत्र या सामुदायिक हित आड़े आते हैं तो सरकार को अपने समर्थन और सहायता से इनका रास्ता बलपूर्वक साफ करना होगा। यह वह ‘निर्णयात्मक’ वादा है जिसने मोदी को भारतीय- और वैश्विक—बड़े व्यवसाय में इतना पसंदीदा व्यक्ति बना दिया है।



देश के शीर्ष व्यवसायियों की निर्णय लेने में ‘अनिर्णयात्मक’ कांग्रेस के प्रति निष्ठा बदल कर क्यों और कैसे नरेंद्र मोदी के पक्ष में हो गई यह ऐसी कहानी है जो भारतीय राजनीति के आंतरिक जीवन की गत्यात्मकता को प्रतिबिंबित करती है। लेकिन बिना कुछ करे लाभ कमाना (रेंट-सीकिंग) और क्रोनीइज्म ने भारतीय अर्थव्यवस्था में ऐसा गहरा संकट पैदा कर दिया है की उदारीकरण से होने वाले तत्काल लाभ अपनी स्वाभाविक सीमा पर पहुंच चुके हैं। नव उदारवादी नीतियों और ‘लाइसेंस परमिट राज’ के अंत की शुरुआत के साथ किए सभी परिवर्तनों का मतलब था कि सरकार के नजदीक रही कंपनियों द्वारा बिना कुछ करे लाभ अर्जित करने का स्तर आसमान छूने तक पहुंच गया है। मद्रास स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स के एन एस सिद्धार्थन के तर्क के अनुसार ‘‘मौजूदा कारोबारी माहौल के तहत, अकूत धन अर्जित करने का रास्ता उद्योग-निर्माण के माध्यम से नहीं बल्कि सरकार के स्वामित्व के तहत संसाधनों के दोहन के माध्यम से ही संभव है।’’ भले ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा अपनी रिपोर्ट में 2 जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाला के अनुमान कुछ ज्यादा हों , यह स्पष्ट है कि संसाधनों का तरजीही आवंटन कंपनियों के लिए लाभ का एक बहुत बड़ा स्रोत बन गया है अन्यथा उनका उत्पादन के माध्यम से लाभ ‘सामान्य’ से अधिक नहीं होता। इन संसाधनों में सिर्फ कोयला या स्पेक्ट्रम या लौह अयस्क ही नहीं, सबसे निर्णायक तौर पर —भूमि और पानी भी शामिल हैं। और यहां, मोदी की उस नई खुशनुमा दुनिया के प्रतिनिधि नायक गौतम अडाणी हैं, जिनका एक प्रमुख व्यापारी के रूप में उदय, खुद गुजरात के मुख्यमंत्री के उदय का दर्पण है।



कॉरपोरेट प्रशंसा की शुरुआत

जनवरी 2009 में ‘वाइब्रेंट गुजरात समिट’ में भारत के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से दो- अनिल अंबानी, जो गैस मूल्य निर्धारण के मुद्दे पर मुकेश अंबानी के साथ लड़ रहे थे, और सुनील मित्तल ने प्रधानमंत्री के रूप में मोदी पर खुला दांव लगाया। अनिल अंबानी को यह कहते हुए उद्धरित किया गया कि ‘‘नरेंद्रभाई ने गुजरात के लिए अच्छा किया है और यदि वह देश को नेतृत्व दें तो [कल्पना करें ] क्या होगा।’’ ‘‘गुजरात ने उनके नेतृत्व में सभी क्षेत्रों में प्रगति की है। अब, कल्पना करें कि देश का क्या होगा अगर उन्हें यह नेतृत्व करने का मौका मिलता है, … उनके जैसा व्यक्ति ही देश का अगला नेता होना चाहिए।’’ भारती समूह के प्रमुख मित्तल, जिनकी दिलचस्पी टेलीकाम में थी, का कहना था : ‘‘मुख्यमंत्री मोदी को एक सीईओ के रूप में जाना जाता है, लेकिन वह एक सीईओ नहीं हैं, क्योंकि वह वास्तव में एक कंपनी या एक क्षेत्र नहीं चला रहे हैं बल्कि एक राज्य चला रहे हैं और देश भी चला सकते हैं। ‘‘उस आयोजन में मौजूद टाटा ने भी मोदी की प्रशंसा की ‘‘मुझे कहना है कि आज गुजरात जैसा कोई राज्य नहीं है। श्री मोदी के नेतृत्व में गुजरात किसी भी राज्य के ऊपर, सिर और कंधे की तरह है।’’ फिर, ‘मंजूरी’ का सवाल उभर कर सामने आया। इकानामिक टाइम्स ने रिपोर्ट किया : ‘‘श्री टाटा ने भावुक होकर कहा कोई राज्य सामान्य रूप से एक नए संयंत्र को मंजूरी देने में 90 से 180 दिन लेता है लेकिन ‘नैनो के मामले में, हमें सिर्फ दो दिनों में जमीन और मंजूरी मिल गई थी।’’



नीरा राडिया टेप, टाटा और बदलता यथार्थ

दो साल बाद, 2011 वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में लच्छेदार भाषण-बाजी का सेहरा मुकेश अंबानी के सर बंधा, ‘‘गुजरात स्वर्णिम चिराग की तरह चमक रहा है और इसका श्रेय नरेंद्र मोदी द्वारा दिए जा रहे प्रभावी, जोश से भरे और दूरदर्शी नेतृत्व को जाता है। इस दृष्टिकोण को हकीकत में बदलने के लिए संकल्प और दृष्टि के साथ एक नेता हमारे पास है।’’ 2013 में, उनके नाराज चल रहे भाई की बारी थी। इकनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘अनिल अंबानी ने राजाओं के राजा के रूप में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित किया–’’ उन्होंने दर्शकों से अनुरोध किया कि वे मुख्यमंत्री का खड़े होकर जयजयकार करें। ‘दर्शक तत्काल तैयार हो गए।’ अन्य वक्ता जो वहां बोले उनमें शीर्ष उद्योगपति का शायद ही कोई नाम बचा हो। इस बार ‘प्रधानमंत्री मोदी’ मंत्र इसलिए नहीं दोहराया गया क्योंकि तब तक भारतीय उद्योग जगत अपना मन बना चुका था।



मुड़कर देखें तो व्यापार और राजनीतिक हितों के इस उभरते ताने-बाने में 2010 का नीरा राडिया टेप ड्रामा निश्चित रूप से एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था। सीएजी द्वारा 2 जी घोटाले को नाटकीय रूप से बेनकाब किए जाने के ऐन पीछे राडिया टेप ने बड़े व्यापार, राजनेताओं, नीति निर्माताओं और यहां तक कि मीडिया के बीच के आंतरिक संबंधों को सार्वजनिक कर दिया। अब सार्वजनिक संसाधनों की लूट को रोकने में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीएजी के साथ आ जाने से यह स्पष्ट हो गया कि आसान ‘मंजूरी’ का युग अब समाप्त होने जा रहा था। यह लगभग वह समय था जब कॉरपोरेट इंडिया ने भारतीय कांग्रेस के नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार, जिसका उन्होंने दृढ़ता से समर्थन किया था और अब तक लाभान्वित हुए थे, पर ‘नीतिविहीनता’, ‘अनिर्णय’ और ‘अस्थिरता’ का आरोप लगाना शुरू कर दिया।



क्योंकि राडिया टेप में उनका नाम आ चुका था, इसलिए स्वाभाविक था कि रतन टाटा इस आक्रमण का नेतृत्व करते नजर आए। देश के सबसे बड़े समूहों में से एक के प्रमुख ने चेतावनी दी कि भारत पर एक बनाना रिपब्लिक (केला गणतंत्र यानी अस्थिर देश) बनने का खतरा है और सरकार पर प्रहार किया कि वह उद्योग के लिए अनुकूल वातावरण बनाए रखने में नाकाम रही है। शीघ्र ही प्रभावशाली दीपक पारेख, जो एचडीएफसी बैंक से जुड़े हुए हैं, ने भूमि अधिग्रहण और खनन पट्टों की मंजूरी अधिक मुश्किल होते जाने के कारण पूंजी के पलायन का हव्वा खड़ा किया। ‘‘एक के बाद एक व्यापारी आप जिससे बात करें’’, टाइम्स ऑफ इंडिया ने रिपोर्ट दी, ‘‘वह अनौपचारिक तौर पर बतलाता है कि पहली बात यह है कि ‘सरकार ठहर गई है।’ नौकरशाहों, बैंकरों और हर एक को फैसले लेने में डर लगता है।’ अगली बात वह यह बताता है कि : ‘अब हम भारत में नहीं बल्कि विदेशों में निवेश करने की सोच रहे हैं।’’ केंद्रीय कृषि मंत्री और व्यापार जगत के मित्र शरद पवार ने भी विरोध के इस हल्ले में अपना स्वर मिलाया।



यह एक तथ्य है कि वर्ष 2009-10 की मंदी के अपवाद वर्ष को छोड़कर, भारत से बाहर की ओर निवेश बढ़ रहा है। कंपनियां विभिन्न कारणों से विदेश में निवेश करती हैं। कुछ संसाधनों जैसे कोयला या तेल के लिए ताकि वे यहां अपने उद्योगों को चला सकें, कुछ प्रौद्योगिकी के लिए या कुछ अधिक आसानी से संरक्षित बाजार तक पहुंचने के एक साधन के लिए ऐसा करती हैं। घरेलू बाजार में मुनाफे पर पाबंदियां भी एक कारण हो सकता है। हारून आर खान, भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर, ने चिन्हित किया है कि ‘‘कुछ विचारकों का मत है कि भारतीय कंपनियों द्वारा किया जा रहा विदेशी निवेश स्थानीय निवेश की कीमत पर है। पर कंपनियों के घरेलू निवेश शुरू करने में आ रही रुकावटों के प्रत्यक्ष कारणों में से एक नीति और प्रक्रियात्मक बाधाओं का हो सकता है।’’ लेकिन घरेलू निवेश में, विशेषकर घरेलू मांग और बुनियादी ढांचे में अल्प आपूर्ति से रुकावट आती है, विशेषकर इंफ्रास्ट्रकचर और घरेलू मांग में जो मूलत: सार्वजनिक निवेश और खर्च, निवेशक के विश्वास और आय के असमान वितरण पर निर्भर करते हैं जो कि जनता की खर्च करने की शक्ति को प्रभावित करता है।



कांग्रेस से मोहभंग की शुरुआत

मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान जब तक भारतीय अर्थव्यवस्था विकास की उच्च दर बनाए हुए थी, सबसे बड़ी भारतीय कंपनियां ‘सामान्य’ लाभप्रदता और ‘क्रोनी प्रीमियम’ दोनों का आनंद ले रही थीं। लेकिन 2008 में दोहरे असर एक ओर वैश्विक मुद्रास्फीति पर मंदी और ब्याज दरों के प्रभाव तथा राडिया घोटाला, सीएजी, जनमत, और 2009 के बाद एक अधिक सतर्क न्यायपालिका के संयुक्त प्रभाव ने इस आरामदायक आय के मॉडल को घातक झटका दिया। भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) द्वारा सहारा समूह पर लगाए आरोप और सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवमानना के आरोप में इसके मालिक सुब्रत रॉय को जेल भेजना शायद इसका सबसे नाटकीय उदाहरण है कि किस तरह बड़े व्यापार के लिए मैदान बदल रहा है। यह निश्चित है कि मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम कॉरपोरेट सेक्टर में फैली इस बेचैनी के बारे में जानते थे और उन्होंने इस समस्या से आसान तरीके से निपटने के लिए निवेश पर कैबिनेट समिति बनाने और प्रमुख मंत्रालयों में जैसे पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस और पर्यावरण एवं वन में अनुकूल लाभ (रेंट फ्रेंडली) परिवर्तन करने की कोशिश की। लेकिन यह भारतीय उद्योग जगत का कांग्रेस पार्टी पर पूर्व की तरह यथास्थिति बहाल करने की क्षमता का यकीन दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं था।



सांप्रदायिक से विकास पुरुष बनने की कहानी

यह आश्चर्य की बात है कि यही समय है जब भारत के संभावित प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का नाम एक सुनियोजित तरीके से सार्वजनिक बहस में प्रवेश करता है। कॉरपोरेट प्रायोजकों और साथ ही अपने मालिकों की व्यक्तिगत वरीयताओं द्वारा उकसाया बड़ा मीडिया मोदी के ‘स्वीकार्य बनाने’ की प्रक्रिया और उसके तार्किक निष्कर्ष तक के लिए हरकत में आ गए। बमुश्किल नौ साल पहले 2004 में केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की हार में अहम भूमिका निभाने के लिए मीडिया द्वारा सार्वभौमिक रूप से गुजरात के मुख्यमंत्री और उसके नरसंहार रोकने में विफल रहने को स्वीकार किया गया था। अब समस्या यह थी कि भारत के उसी शहरी मध्य वर्ग को जो सांप्रदायिकता हिंसा से विचलत था कैसे समझाएं कि भारत की समस्याओं का हल मोदी के नेतृत्व में निहित है। यही वह प्रक्रिया है जिसमें ‘विकास के गुजरात मॉडल’ का मिथक सामने आया है। ‘‘आज लोग गुजरात में विकास के चीन मॉडल के बारे में बात कर रहे हैं, ‘‘ महिंद्रा एंड महिंद्रा के आनंद महिंद्रा ने 2013 के वाइब्रेंट गुजरात शिखर सम्मेलन को बताया। ‘‘लेकिन वह दिन दूर नहीं है जब लोग चीन में विकास के गुजरात मॉडल के बारे में बात करेंगे।’’



गुजरात में आंकड़ों की चालबाजी के बारे में बहुत कहा और लिखा गया है जो एक प्रशासक के रूप में मोदी के लंबे-चौड़े दावों का आधार है कि जिसने गुजरात को बदल दिया है। लेकिन इस प्रकार से अपने नेता की तारीफ में, कॉरपोरेट भारत अनजाने एक स्वीकारोक्ति कर रहा है : कि वे मोदी के सबसे ज्यादा भक्त उनके ‘चीनी मॉडल’ के लिए हैं। आखिर यह मॉडल क्या है? यह वह मॉडल है जिसमें भूमि, खानों और पर्यावरण के लिए ‘मंजूरी’ का कोई अर्थ नहीं है। जिसमें गैस के मूल्य निर्धारण के बारे में असहज सवाल नहीं पूछे जाते। भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत संस्थागत कार्रवाई के लिए बढ़ता जन समर्थन, जो कि कांग्रेस के प्रति जनता के मोहभंग की जड़ में है, उसके विपरीत कॉरपोरेट भारत की ‘भ्रष्टाचार’ के अंत में कोई दिलचस्पी नहीं है। हमारी सबसे बड़ी कंपनियों के व्यापार का क्रोनीज्म और किराए की तलाश अभिन्न हिस्सा बन गए हैं—यह एक तरह का ‘भारतीय विशेषताओं वाला पूंजीवाद है’—और वे इस व्यवस्था को एक निर्णायक, स्थिर और उम्मीद के मुताबिक तरीके से चलाने के लिए मोदी की ओर देख रहे हैं। वे एक ऐसा नेतृत्व चाहते हैं जो जब भी विरोधाभास और संस्थागत बाधाएं आएं उनका समुचित प्रबंधन करे। सांप्रदायिक भीड़ जो मोदी की भक्त है, उनके कॉरपोरेट समर्थकों के लिए एक अतिरिक्त आकर्षण है, बशर्ते नेता अपने साथियों को नियंत्रित रखने में सक्षम हो। यह कुछ ऐसा है जो अटल बिहारी वाजपेयी और यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी भी हमेशा कर पाने में सक्षम नहीं थे। नरेंद्र मोदी और अधिक निर्णायक व मजबूत इरादों वाले आदमी हैं। उन पर विश्वास किया जा सकता है कि जब कभी भी किसी संकट को दूर करना होगा तो वह यह कर सकेंगे।



पुनश्च : इस बीच समाचार आया कि एन.के. सिंह, जो नौकरशाह से राजनेता बने, जिनको रिलायंस के विषय में संसदीय बहस के क्रम को प्रभावित करने की कोशिश करते हुए राडिया टेपों पर सुना गया है, वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए हैं।



अनु.: प्रकाश चौधरी

04 सितंबर, 2014

मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' पर पुनर्विचार

रामाज्ञा शशिधर 

*सभ्यता का हर दस्तावेज बर्बरता का भी दस्तावेज होता है। -वाल्टर बेंजामिन

*अचेतन ‘अन्य’ का विमर्श क्षेत्र है। – लाकां

यह मुक्तिबोध की अंतिम कविता अंधेरे में का पचासवां साल है। अंधेरे में कविता 1957 से 1962 के बीच रची गई, जिसका अंतिम संशोधन 1962 में हुआ तथा प्रकाशन ‘आशंका के द्वीप: अंधेरे में’ शीर्षक से कल्पना में नवंबर 1964 में हुआ। यह मुक्तिबोध की प्रतिबंधित किताब भारत: इतिहास और संस्कृति का भी पचासवां साल है। ग्वालियर से 1962 में प्रकाशित होने और मध्य प्रदेश की तत्कालीन सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने के बाद जबलपुर न्यायालय द्वारा 1963 में किताब के प्रतिबंधित अंश हटाकर अतिरिक्त छापने के फैसले का यह पचासवां साल आशंका के द्वीप भारत के अंधेरे को ज्यादा विचारणीय बना देता है। यह अनायास नहीं है कि अंधेरे में की जब पचासवीं सालगिरह मनायी जा रही है, तब मुक्तिबोध की प्रतिबंधित किताब पर कहीं कोई बहस नहीं है। शायद इसका जवाब भी अंधेरे में कविता में मौजूद है।
अंधेरे में फैंटेसी में निर्मित कविता है। स्वाधीनता के छियासठ और भूमंडलीकरण के बाईस वर्षों बाद भारतीय समय, समाज, सत्ता और राष्ट्र का अंधेरा फैंटेसीमय हो गया है। मध्यवर्ग का चरित्र ज्यादा पतित हो गया है। आम जनता से उसका लगभग संबंध विच्छेद हो गया है। सत्ता के साथ वह ज्यादा नाभिनालबद्ध है। बौद्धिक वर्ग पूर्णत: रक्तपाई वर्ग का क्रीतदास हो गया है। राष्ट्रवाद, वर्गचेतना, सर्वहारा, जनक्रांति आदि शब्द मध्यवर्ग के शब्दकोश से गायब हो गए हैं। पश्चिमी आधुनिकता और कॉरपोरेट पूंजी राष्ट्रराज्य से गठबंधन कर जनता के सामने तानाशाह की भूमिका में है। शीतयुद्ध समाप्ति के बाद रहा-सहा मार्क्‍सवादी संस्कृति चिंतन बासी कढ़ी में उबाल की तरह दिखता है। जनता का एक बड़ा हिस्सा सभ्यतागत विनाश के आखिरी कगार पर विस्थापन, आत्महत्या, दमन और संघर्ष में संलग्न है लेकिन मध्यवर्ग और क्रीतदास बौद्धिक वर्ग का उससे किसी तरह का सृजनशील जुड़ाव नहीं है। वैश्विक सत्ता प्राकृतिक संसाधन और गांव-खेत के साथ मानव अचेतन के तिलस्मी इलाके पर भी उच्च तकनीकी संस्कृति के माध्यम से कब्जा कर चुकी है। अस्तित्व और चेतना का पूरा इलाका राजनीति, बाजार और भाषा के पाखंड एवं झूठ से पटा हुआ है। ‘अंधेरे की’ फैंटेसी ने रहस्य और जादू के जटिल खेल में पूरी सभ्यता को उलझा दिया है।
सभ्यता संकट के इस सर्वग्रासी दौर में ‘अंधेरे में’ कविता पाठकों के लिए एक नई रोशनी का काम कर सकती है। लेकिन हिंदी आलोचना के मठवाद और गढ़वाद ने मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का अंधेरा और बढ़ा दिया है। दिलचस्प है कि हिंदी आलोचना के फैंटेसी जैसे कला रूप से भले संबंध नहीं हो, लेकिन ‘अंधेरे में’ जैसी कविता की आलोचना के क्रम में उसका फैंटेसीमय गड्डमड स्वप्नचित्र देखने लायक है। क्लासिक मार्क्‍सवादी और यथार्थवादी आलोचक रामविलास शर्मा के लिए इस कविता पर एक ओर विकृत मनोचेतना के रहस्यवाद का प्रभाव दिखाई पड़ता है, वहीं दूसरी ओर सात्र्र के खंडित व्यक्तित्व के अस्तित्ववाद का। आधुनिकताबोध और नई समीक्षा से प्रभावित नामवर सिंह के लिए वहां भाषिक एवं साहित्यवादी अस्मिता की खोज है, वहीं स्थूल मार्क्‍सवादी प्रभाकर माचवे के लिए वह ‘गुएरनिका इन वर्स’ है। शमशेर के लिए यह कविता देश के आधुनिक जन इतिहास का स्वतंत्रतापूर्व और पश्चात का एक दहकता इस्पाती दस्तावेज है तो कलावादी अशोक वाजपेयी के लिए ‘खंडित रामायण’। एक आलोचक को इसमें लंदन की रात दिखती है तो दूसरे कवि को जापानी फिल्म का जंगल। बात यहीं ठहर जाये तो गनीमत है। तिलस्मी खोह में कुहासा बढ़ाने के लिए हिंदी आलोचना की हांफती हुई युवा पीढ़ी मुक्तिबोध पर किताब लिखती है तथा मार्शल लॉ लगाने वाली शक्ति से पुरस्कृत होती है। यहां गाइड छाप पदोन्नतिमूलक समीक्षा की चर्चा करना व्यर्थ है जिसे हिंदी आलोचना में ‘कूड़ावाद’ के प्रर्वतन का श्रेय दिया जाना चाहिए। जितनी चेतना मध्यवर्ग की तथा फैंटेसी की टूटी बिखरी हुई नहीं होती है, उससे ज्यादा कविता की आलोचना की है। विचारणीय है कि व्यक्तिपूजा और कर्मकांड से ग्रस्त हिंदी मनीषा पिछले समय में नदी के द्वीप के अज्ञेय की जिस तल्लीनता से पूजा-पाठ कर थी, इस वर्ष से आशंका के द्वीप: अंधेरे में के कवि मुक्तिबोध का उसी सम पर भजन-कीर्तन शुरू कर चुकी है। ऐसी परिस्थिति में मुक्तिबोध की इस कविता की आलोचना आग में पूरी हथेली डालने जैसा काम है।


‘अंधेरे में’ कविता के विश्लेषण-मूल्यांकन का संकट वस्तुत: उसमें प्रयुक्त फैंटेसी कलारूप, अचेतन विश्लेषण एवं मनोभाषिकी के संबंधों को ठीक से नहीं साधने-समझने का संकट है। यह समस्या हिंदी में जितनी बड़ी कलावादियों के सामने रही है, उससे कम बड़ी क्लासिक/ मार्क्‍सवादियों के लिए नहीं। वस्तुत: उपनिवेशित आधुनिकता के प्रचंड प्रभाव से पीडि़त हिंदी का ज्ञानकांड चेतन-अचेतन में जरूरत से ज्यादा यथार्थवाहक और पश्चिमोन्मुख है। इसकी जड़ें पुराने औपनिवेशिक ज्ञानकांड से नव साम्राज्यी चेतना कांड तक महीन रूप से फैली हुई हैं। अंधेरे में आधुनिक हिंदी में अकेली कविता है जो चार सौ साल के औपनिवेशिक ज्ञानकांड और कला रूप को बहुआयामी चुनौती देती है।

मुक्तिबोध ने गहरी साधना से इस काव्यरूप को अपने लिए संभव किया था। वे एक साथ सत्ता, व्यवस्था और सभ्यता के सच्चे समीक्षक थे। इसके लिए उन्होंने पूरा जीवन दांव पर लगा दिया तथा इस कारण उनकी अकाल मौत हुई। फैंटेसी एक यातनाकारी काव्यरूप है जो कलाकार से पूरा जीवन मांगती है। फैंटेसी ऐसा कलारूप है, जो मानव मन के चेतन, अवचेतन और अचेतन में विशिष्ट ढंग से आवाजाही करते हुए स्वप्न बिंबों की शृंखला का भाषिक सृजन करती है। फैंटेसी जाग्रत स्वप्न चित्रावली है। परिवेश के दमन और दबाव से फैंटेसी की शक्ति बढ़ती है। प्रतिरोध का आधार अंतर्वस्तु के रूप में भी होता है। फैंटेसी एक भाववादी किंतु क्रांतिकारी शिल्प है जो आधुनिकता और यथार्थ के दमनकारी एवं गैरलोकतांत्रिक रूपों का संकेत अपनी उपस्थिति से ही नहीं करती है बल्कि रचना प्रक्रिया के दौरान अंतर्वस्तु चित्रण के माध्यम से दमन प्रक्रिया से भी साक्षात्कार कराती है।
मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ को चरित्र, आख्यान और विचार तीन बिंदुओं के माध्मय से समझने की कोशिश होनी चाहिए। ‘अंधेरे में’ के दो नायक हैं। एक काव्य नायक, दूसरा स्वप्न नायक। पहला ‘मैं’ है तथा दूसरा उसका ‘अन्य’। दोनों के घात-प्रतिघात से कविता के आख्यान का विकास होता है। आठ खंडों में विभाजित महाकाव्यात्मक उपाख्यान के लिए यह कविता काव्य नायक और और स्वप्ननायक की विभाजित चेतना को एक करने का प्रयास करती है तथा ‘अन्य’ में ‘मैं’ का व्यक्तित्वांतरण कर सत्ता, व्यवस्था और सभ्यता के मूलगामी प्रश्नों का हल खोजती है।
काव्य नायक का स्वप्न नायक में विलोप कैसे होता है? कविता में काव्य नायक कवि और मध्यवर्गीय बौद्धिक वर्ग है। वह आधुनिकताबोध से ग्रस्त मनुष्य है। स्वतंत्रता के बाद उसकी चेतना बहुविभाजित, बहुखंडित और जनविरोधी हो गई है। वह नदी का द्वीप है। यह औपनिवेशिक दृष्टि पश्चिमी ज्ञानवाद, तर्कप्रणाली, जीवनशैली और मशीनी सभ्यता के कारण हुई है। काव्य नायक का ‘अहं’ प्रचंड व्यक्तित्ववाद का शिकार है। काव्य नायक की छटपटाहट से कविता आरंभ होती है तथा वह स्वप्ननायक को मनु, श्वेत आकृति, रक्तालोक स्नात पुरुष, संभावित स्नेह सा प्रिय, आजानुभुज, रहस्यमय व्यक्ति, अब तक न पाई गई अभिव्यक्ति, आत्मा की प्रतिमा, हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव, निज संभावना और प्रतिभा आदि के रूप में बार-बार देखता है। आत्मालोचन और आत्मग्लानि के माध्यम से काव्य नायक धीरे-धीरे स्वप्न नायक के पास पहुंचता है, एकाकार होता है, दमन सहता है, संघर्ष करता है और अंतत: उसके अस्तित्व का विलय हो जाता है। फैंटेसी द्वारा विलोपीकरण की प्रक्रिया अचेतन मन के भीतर मुमकिन होती है।
मन की तीन अवस्थाएं होती हैं—चेतन, अवचेतन, अचेतन। जीवनानुभव का दो तिहाई हिस्से यथार्थ और भाषा दोनों अचेतन में रहते हैं। कला के दो क्षण यहीं घटित होते हैं। मन के तीन रूप होते हैं—बाह्य मन, प्रतीक मन और कल्पना मन। प्रतीक मन में भाषा-मिथक होते हैं जो सामूहिक अचेतन का प्रतिनिधित्व करते हैं। कल्पना मन तो अचेतन का वह इलाका है जहां फैंटेसी घटित होती है। जब काव्य नायक का ‘मैं’ और स्वप्न नायक का ‘अन्य’ कल्पना मन में पहुंचते हैं तथा कला के तीसरे क्षण में संवेदन उद्देश्य से प्रेरित होते हुए पिघल जाते हंै तब वहीं दोनों की एकता होती है। फिर स्वप्न चित्र प्रतीक मन में आकर भाषिक संरचना में ठोस रूप में तब्दील हो जाते हैं। इस तरह ‘मैं’ और ‘अन्य’ का अचेतन इलाके में विलोपीकरण होता है। इसे मुक्तिबोध कला के तीन क्षण और संवेदन उद्देश्य द्वारा अपनी तरह से आलोचना में व्याख्यायित करते हैं।
पूंजीवाद की बुनियादी विशेषता है कि वह संरचना, अवधारणा और अनुभव के क्षेत्र में दरार पैदा कर देता है—सार्वजनिक और निजी के बीच, सामाजिकता और मनोविज्ञान के बीच, राजनीति और काव्य के बीच, इतिहास, समाज और व्यक्ति के बीच। इस कारण वैयक्तिक विषय में हमारा चिंतन विकलांग हो जाता है। समय और बदलाव के बारे में हमारी सोच लकवाग्रस्त हो जाती है। इस तरह पूंजीवाद हमें हमारी वैयक्तिक अभिव्यक्ति से अलग-थलग कर देता है (फ्रेडरिक जेम्सन)। यह समस्या स्थूल समाजशास्त्रीय और मार्क्‍सवादी दोनों दृष्टियों पर समान रूप से लागू होती है। मुक्तिबोध के संदर्भ में इसके सबसे बड़े उदाहरण रामविलास शर्मा हैं। मुक्तिबोध की कविता इसी पूंजीवादी दृष्टि की शिकार हुई।
औपनिवेशिक आधुनिकता के दमनकारी, तानाशाह, एकांगी, यथार्थवादी, तर्कप्रधान, मशीनी एवं तकनीकी सत्य को चुनौती देने के लिए मुक्तिबोध ने फैंटेसी प्रविधि का प्रयोग किया। लेकिन उत्तर आधुनिकता से उपजी समस्या के दौर में फैंटेसी का महत्त्व और बढ़ गया है। उत्तर आधुनिकता ने यथार्थ को छवियों में बदल दिया है तथा समय को वर्तमान क्षणों में खंडित कर दिया है। मुक्तिबोध द्वारा अर्जित फैंटेसी प्रविधि आज उत्तर आधुनिक वायवीय एवं भ्रममूलक स्वप्न छवियों तथा समय के खंडित क्षणों को साहित्य की दुनिया में चुनौती देने में सर्वाधिक सक्षम कलारूप है। अंधेेरे में कविता की समकालीनता इस कसौटी पर और बढ़ गई है। फैंटेसी साहित्य रचना के क्रम में एक ओर भाषा के खोए हुए जीवनमूल्य और अर्थमूल्य को पुनर्सृजन द्वारा लाती है तथा दूसरी ओर यथार्थ की बाह्य मन में मौजूद वस्तु संरचना तथा कल्पना मन में प्रवाहित स्वप्न संरचना के विभ्रममूलक एवं आडंबरीकृत परत को हटा देती है। संभवत: फैंटेसी शिल्प के कारण ‘अंधेरे में’ का काव्य नायक मध्यवर्गीय मिथ्या चेतना से मुक्त होकर रेडिकल वर्ग चेतना से संपन्न होता है। इस कविता के काव्य नायक की सर्वहारा के स्वप्न नायक से एकता का प्रश्न कविता में चेतना और अस्तित्व दोनों स्तरों पर है। इस तरह एक मरते हुए मूल्य का अग्रगामी मूल्य में गुणात्मक रूपांतरण होता है।
इसके व्यक्तित्वांतरण की चुनौती दरअसल मध्यवर्ग के अविभाजित नायक को जनयूथ और जनक्रांति में शामिल करने की चुनौती है जहां उसे जनांदोलन का नेतृत्व सौंपा जाए—मेरे युवकों में व्यक्तित्वांतर/विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर/मानो कि ज्वाला-पुंखरी-दल में घिरे हुए सब/अग्नि कमल के केंद्र में बैठे/द्रुत वेग बहती हैं शक्तियां संचयी/कहीं आग लग गई/कहीं गोली चल गई। कलावादी आरोप लगा सकते हैं कि क्या कविता क्रांति कर सकती है। जवाब होगा कि कविता क्रांति नहीं कर सकती है, किंतु एक ओर क्रांति प्रक्रियाओं का चित्रण करती है तथा दूसरी ओर क्रांति प्रक्रिया में रचनात्मक योगदान देती है। दुनिया भर की कविता और हमारा स्वतंत्र साहित्य इसका जीवित प्रमाण है।
शमशेर की टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है कि यह कविता स्वतंत्रतापूर्व और स्वतंत्रता पश्चात का दहकता इस्पाती दस्तावेज है। मुक्तिबोध ने अपनी बीमारी की अवस्था में मित्र श्रीकांत वर्मा से आग्रह किया था कि चांद का मुंह टेढ़ा है में उनकी दो कविताएं एक साथ चंबल की घाटियां और आशंका के द्वीप: अंधेरे में को जरूर शामिल किया जाए। उन्होंने कहा था कि आशंका के द्वीप: अंधेरे में शीर्षक एक विशेष मन:स्थिति के प्रवाह में दिया गया था। श्रीकांत वर्मा का भी मानना है कि यह शीर्षक इस कविता के अर्थ को अच्छी तरह व्यंजित करता है। गौरतलब है कि कविता को अंतिम रूप देने के दौरान मुक्तिबोध गंभीर तनाव से गुजर रहे थे। उनके अस्तित्व को बचाने वाली स्कूली पाठ्यक्रम की किताब भारत: इतिहास और संस्कृति तत्कालीन सत्ता द्वारा प्रतिबंधित हो गई थी। इस प्रतिबंध मांग अभियान में मध्य प्रदेश की कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। यह नहीं भूलना चाहिए कि तत्कालीन कम्युनिस्ट आंदोलन पर नेहरू युग का नशा इतना था कि इसका तेलंगाना किसान आंदोलन के दमन और प्रगतिवादी आंदोलन की समाप्ति से बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है। उस दौर में मुक्तिबोध के लिए भारतीय उपमहाद्वीप का प्रश्न, अधूरी आजादी का प्रश्न, औपनिवेशिक आधुनिकता का प्रश्न सबसे बड़ा प्रश्न था। यूं ही मध्यवर्गीय काव्य नायक के सम्मुख छंद लय से युक्त गीत एक पागल नहीं गाता है—अब तक क्या किया/जीवन क्या जिया/ज्यादा लिया और दिया बहुत बहुत कम/मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम। तब मार्क्‍सवादी आलोचना अंतरराष्ट्रीयता बोध से इतनी मोहग्रस्त थी कि राष्ट्र, राष्ट्रीयता और संघर्ष का प्रश्न गौण लगता था। मुक्तिबोध के सम्मुख अधूरी आजादी के स्थान पर मुकम्मल आजादी का संभावित नक्शा पेश करने का प्रश्न था—इस तम शून्य में तैरती है जगत् समीक्षा/की हुई इस उसकी/विवेक विक्षोभ महान उसका/तम अंतराल में/अंधियारे मुझमें द्युति आकृति सा/भविष्य का नक्शा दिया हुआ उसका। काव्य नायक को बोध है—लोकहित पिता को घर से निकाल दिया/जन मन करुणा सी मां को हकाल दिया/स्वार्थों के टेरियर कुत्तों को पाल लिया/जमे जाम हुए फंस गए/अपने ही कीचड़ में धंस गए।
राष्ट्रवाद का प्रश्न मार्क्‍सवादी विचारधारा के लिए भी अब अर्थव्यवस्था की मुक्ति का उपप्रश्न नहीं है। यह मानवता के संपूर्ण अस्तित्व के लिए ऊर्जा पाने का प्राथमिक प्रश्न है। मार्क्‍स ने कभी कहा था कि क्रांति राष्ट्र करता है पार्टी नहीं। यह तथ्य आज ज्यादा सच है। आज भारत जैसा देश बाहरी औपनिवेशिक विकसित राष्ट्रों के बाजारवादी और हथियारवादी राष्ट्रवाद तथा आंतरिक उन्मादी सांप्रदायिक राष्ट्रवाद दोनों के दमन, शोषण का शिकार है। ‘अंधेरे में’ कविता इन दोनों कट्टर राहों से अलग जनता के जनराष्ट्रवाद का नक्शा देती है। इसे कविता में तिलक और गांधी के रूपकों से समझना चाहिए। तिलक की प्रतिमा का हिलना, चिंता से मस्तिष्क का फटना तथा खून की धार का बहना राष्ट्रीय मुक्ति के क्रांतिकारी मसौदे का अगला संकेत है। कविता में गांधी के कंधों पर सवार शिशु वह स्वातंत्र्य शिशु स्वप्न है जो पहले तो सूरजमुखी के प्रकाश कण से भरे पुष्प गुच्छ में बदलता है तथा अंतत: काव्य नायक के कंधे पर भारी रायफल में तब्दील हो जाता है। आजादी के बाद राष्ट्र के सामने प्रश्न शेष थे—किसकी आजादी? कैसी आजादी? किसका राष्ट्र? कैसा राष्ट्र? तेलंगाना किसान आंदोलन से नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के बीच बीस सालों का अंतराल आम जनता और मध्यवर्ग के असंतोष, आक्रोश और बेचैनी का दौर था जिसे अनगिनत राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय घटनाएं प्रेरित एवं प्रभावित कर रही थीं। वस्तुत: तिलक और गांधी के स्मृति निर्माण की काव्य राजनीति नेहरू युगीन स्मृति लोप की राजनीति का सृजनात्मक जवाब है। इस कविता से यह प्रेरणा मिलती है कि पुराने दौर की तरह आज भी राष्ट्रीय मुक्ति और वर्ग मुक्ति का सवाल एक दूसरे से अलग नहीं है, बल्कि नवउपनिवेश ने राष्ट्रमुक्ति के प्रश्न को जीवनमरण का प्रश्न बना दिया है। कहना न होगा आधुनिक सभ्यता की भूलने की राजनीति का विश्लेषण और याद करने की राजनीति का मार्ग अन्वेषण फैंटेसी कला रूप के द्वारा ही संभव है।
मुक्तिबोध के लिए जनमुक्ति का प्रश्न राष्ट्रमुक्ति से जुड़ा हुआ है तथा राष्ट्रमुक्ति और जनमुक्ति का संयुक्त प्रश्न मध्यवर्गीय चेतना की मुक्ति से है। मुक्तिबोध को इन प्रश्नों का हल सभ्यता मुक्ति में दिखता है। उन्हें मालूम है कि पूंजीवादी राष्ट्रराज्य दमनकारी है। वह पश्चिमी आधुनिकता के विजय रथ पर आरूढ़ है। कविता में मौजूद ‘पागल’ का रूप आधुनिकता पर प्रश्न चिह्न लगाता है। आधुनिकता के उजाले में जिसे पागल साबित किया गया है अंधेरे में वह जागरित बुद्धि और आत्मोद्बोधमय है। वस्तुत: आधुनिकता के भीतर विद्रोही, विसंगत, स्वप्नमय मनुष्य के लिए कोई जगह नहीं है। उस कथित पागल विद्रोही को पता है कि पूरा मध्यवर्ग इतना मूल्यहीन है कि वह उदर भरने के लिए आत्मा बेचता है, भूतों की शादी में कनात सा तनता है, व्यभिचार का विस्तर बनता है, दुखों के दागों को तमगों सा पहनता है, असंग बुद्धि और निष्क्रिय जीवन शैली के साथ दिन-रात अपने ही खयालों में मग्न रहता है। इसलिए आधुनिकता के उजाले ने उसे खारिज कर दिया है। बिना सभ्यता मुक्ति के मनुष्य को कथित पागलपन और विखंडित व्यक्तित्व से मुक्त नहीं किया जा सकता है।
मुक्तिबोध के मध्यवर्गीय काव्य नायक की समस्या केवल बाह्य औपनिवेशिक आधुनिकता नहीं है बल्कि आंतरिक गढ़वाद और मठवाद भी है। सच्ची जनमुक्ति और जनक्रांति के लिए—अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे/तोडऩे होंगे ही मठ और गढ़ सब/पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार/तब कहीं मिलेगी हमको/नीली झील की लहरीली थाहें/ जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता/अरुण कमल एक। ‘अंधेरे में’ कविता में मौजूद प्रकृति की संवेदन सघनता तथा पुरानी इमारतों, मठों, गढ़ों की जर्जरता हमारे सामने एक वैकल्पिक सभ्यता निर्माण का मानचित्र उपस्थित करती है।
मुक्तिबोध ऐेसे दौर के कवि हैं जिनके सामने रूप, भाषा और काव्यजीवन से जुड़ी दोहरी चुनौतियां थीं। एक तरफ प्रगतिवादी साहित्य का एकांगी यथार्थ बोध तथा दूसरी तरफ नई कविता का संत्रासमूलक व्यक्तिवाद। मुक्तिबोध ने इन दोनों चुनौतियों का हल अपनी कविता में प्रस्तुत किया। इसके लिए उन्हें कला संघर्ष, आत्म संघर्ष और युग संघर्ष तीनों करने पड़े। मुक्तिबोध कला में जिस सौंदर्य अनुभव और जीवनबोध को लाना चाहते थे, इसके लिए आधुनिकता और उसका यथार्थवाद दोनों दमनकारी और अपर्याप्त थे। वस्तुत: यह कला नियम की अपर्याप्तता पश्चिम के ज्ञानोदय, नवजागरण, विज्ञानवाद और आधुनिकता संबंधी धारणा सेे पैदा हुई थी जो पुरानी औपनिवेशिक सत्ता के दौरान भारतीय समाज का पूर्ण यथार्थ बन चुकी थी।
आधुनिकता की कुछ बुनियादी समस्याएं हैं—संपूर्णता, पश्चिमी वैश्विक मूल्य, पूंजीवादी महाआख्यान, वस्तुनिष्ठ विज्ञानवादी ज्ञान, सांस्कृतिक अभिजातवाद, राष्ट्रराज्य, उपभोक्तामूलक जीवन शैली, व्यक्तिवाद आदि। मुक्तिबोध अपने कला रूप फैंटेसी, काव्यभाषा, जीवनबोध और विचारधारा के माध्यम से इस कविता में इन समस्याओं का हल ढूंढ़ते हैं। अचेतन मन के इलाके में कवि का संवेदन उद्देश्य यही है। सभ्यता संकट इतना गहरा है कि विचार और सौंदर्य अनुभव की जमीन पर समाज लगभग अघाया हुआ दिख रहा है। कविता संतृप्त समाज के सामने पूंजीवाद द्वारा चलाए जा रहे सांस्कृतिक-आर्थिक अभियान के अचेतन की राजनीति का तिलस्मी द्वार खोलती है। दुर्भाग्य से मार्क्‍सवादी चिंतन इस पक्ष की सर्वाधिक उपेक्षा करता है जिसका शिकार हिंदी आलोचना है। आज कला और संस्कृति की राजनीति वस्तुत: अचेतन की राजनीति है।
आधुनिकता उपनिवेशित मध्यवर्गीय अचेतन के काव्य नायक के स्वप्न नायक में व्यक्तित्वांतरित होने तथा जनक्रांति का नायकत्व प्रदान करने की समस्या बहुत गहरी है। इसके दो बड़े कारण हैं—एक तो सत्ता द्वारा दमन अभियान, दूसरी मध्यवर्ग की भूमिका। मध्यवर्ग जनक्रांति के समय कविता में दो रूपों में मौजूद है।
जनमुक्ति की सबसे बड़ी समस्या राष्ट्रराज्य का दमन अभियान है। सत्ता के दो रूप हैं। वह अंधेरे में दमन करती है तथा उजाले में लोकतंत्र का कारोबार। जनक्रांति के दमन निमित्त मार्शल लॉ की यात्रा दिल दहला देने वाली है। निस्तब्ध नगर की मध्य रात्रि में बैंड बाजे के साथ जुलूस चल रहा है। आधुनिक सभ्यता के अंधेरे में काव्य नायक को कोलतार की सड़क ‘मरी हुई खिंची हुई काली जिह्वा’ तथा खंभे पर टंगे बिजली के बल्ब ‘मरे हुए दांतों का चमकदार नमूना’ लगते हैं। चमकदार बैंडदल अस्थि रूप, यकृत स्वरूप, उदर आकृति और उलझी हुई आंतों के जालों जैसा विरूपित है। इस शोभायात्रा में—संगीन नोकों का चमकता जंगल/चल रही पदचाप/तालबद्ध दीर्घ पात/टैंक दल, मोर्टार, आर्टिलरी/सन्नद्ध/धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना—जैसा दृश्य है। इस जुलूस में कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल, सेनापति, अध्यक्ष, मंत्री, उद्योगपति सभी शामिल हंै। इससे ज्यादा डरावनी बात काव्य नायक के लिए यह है कि जुलूस में पत्रकार, प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण भी शामिल हैं। विडंबना तब चरम पर पहुंच जाती है जब उनके साथ शहर के हत्यारे कुख्यात डोमाजी उस्ताद की सक्रिय सहभागिता जगमगाती हुई दिखाई पड़ती है। सत्ता के साथ मध्यवर्गीय बौद्धिक का यह अनैतिक, मूल्यहीन गठबंधन ही जनक्रांति में बाधक है। काव्य नायक की त्रासदी है कि दिन के दफ्तरों में नग्न हो जाने के डर से यह बौद्धिक वर्ग उसे अंधेरे में खत्म कर देना चाहता है। काव्य नायक को संकट की गहरी पहचान है—गहन मृतात्माएं इसी नगर की/हर रात जुलूस में चलतीं/परंतु दिन में/बैठकर हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र विभिन्न दफ्तरों, कार्यालयों, केंद्रों में, घरों में।
काव्य नायक के स्वप्न नायक में एकाकार होकर शुरू की गई जनक्रांति प्रक्रिया की दूसरी बाधा मध्यवर्ग की तमाशबीन भूमिका है। उसकी तटस्थता और उदासीनता के ठोस कारण हैं। मुक्तिबोध को इस संकट की भी प्रामाणिक पहचान है। बौद्धिक वर्ग का जब श्रमजीवी वर्ग से रिश्ता कट जाता है तब वह ‘जन मन उद्देश्य’ से भटक जाता है। आजकल मध्य वर्ग कलम और कुदाल, शब्द और श्रम, ज्ञान और कर्म की फांक से गुजर रहा है। हिंदी जनता गन प्वाइंट पर है और हिंदी साहित्य पावर प्वाइंट पर है। काव्य नायक की मान्यता है कि बौद्धिक वर्ग क्रीतदास है, उसके विचार किराए के हैं तथा अपनी काली करतूतों में इतना डूब गया है कि चेहरे पर स्याही पुत गई है। जब बौद्धिक वर्ग रक्तचूसक सत्ता से नाभिनाल बंध जाता है तब जनक्रांति पर संकट अवश्यंभावी है। काव्य नायक हैरान है कि ऐसे कठिन वक्त में साहित्यकार चुप हैं और कविजन निर्वाक। चिंतक, शिल्पकार, नर्तक सबके लिए बदलाव एक ख्याली गप है, कोरी किंवदंती है। ऐसा इसलिए है—रक्तपाई वर्ग से नाभिनाल बद्ध ये सब लोग/नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे/प्रश्न की उथली सी पहचान/राह से अनजान।
‘अंधेरे में’ की महत्त्वपूर्ण चिंता मिथ्या चेतना से लैस काव्य नायक को वर्ग चेतना से युक्त करना है। कविता में एक मध्यवर्गीय कलाकार की असंग मृत्यु का क्या अर्थ संकेत है? जब शिशु फूल के गुच्छ से रायफल में बदलता है, ठीक उसी वक्त एक एकांतप्रिय कलाकार की हत्या हो जाती है। काव्य नायक अंधेरे में टार्च फैलाकर देखता है, तो उसे खून भरे बाल में उलझा माथा, भौंहों के बीच में गोली की सुराख, होठों पर कत्थई धारा, फूटा चश्मा दिखाई पड़ता है—सचाई थी सिर्फ एक अहसास/वह कलाकार था/गलियों में अंधेरे का हृदय में भार था। /पर कार्य क्षमता से वंचित व्यक्तित्व/चलाता था अपना असंग अस्तित्व/किंतु न जाने किस झोंक में क्या कर गुजरा कि/संदेहास्पद समझा गया और/मारा गया वह बधिकों के हाथों। वस्तुत: असंग अस्तित्व की खोज में जनविमुख कलाकार और कोई नहीं काव्य नायक का मध्यवर्गीय बौद्धिक अचेतन है। आज का मध्यवर्गीय बौद्धिक बाजार संस्कृति और बजरंग संस्कृति, सत्ता संस्कृति और जन संस्कृति, मार्शल लॉ और जनसंघर्ष, क्रांति और भ्रांति, आधुनिकता और बर्बरता, मध्यकालीनता और उत्तरआधुनिकता के विभ्रमकारी भंवर में इस कदर फंस गया है कि उसका असंग व्यक्तित्व आसन्न विध्वंस की ओर मुखातिब है। यह पुराना प्रश्न है कि कला कला के लिए होनी चाहिए या कला जीवन के लिए। नया जवाब है कि अब कला जीवन के लिए नहीं, जीवन-यापन, आत्म विज्ञापन और ब्रांड सत्यापन का अंग बन गई है। तब मुक्तिबोध और ‘अंधेरे में’ की सार्थकता और बढ़ गई है।
‘अंधेरे में’ कविता फैंटेसी रूपक द्वारा संस्कृति के अचेतन के राजनीतिक प्रतिमानों का निर्माण करती है, मानव अचेतन पर हो रहे दमन, अधिग्रहण और अतिक्रमण का विरोध करती है, काल्पनिक अचेतन में भाषा के नए सृजनशील संसार का आह्वान करती है तथा अधूरे यूटोपिया को पूर्ण स्वप्न में बदल देने का मानचित्र बनाती है। मुक्तिबोध ने लिखा है कि आलोचक साहित्य का दारोगा होता है। ‘अंधेरे में’ कविता आधुनिक सत्ता, व्यवस्था और सभ्यता से नाभिनाल बद्ध आलोचक की दारोगाई चेतना को अपने काव्य रूप, काव्य वस्तु और विचार धारा से कटघरे में खड़ा कर देती है—दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर/दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट/कोई मुर्गा/यदि बांग दे उठे जोरदार/बन जाए मसीहा।
क्या वर्तमान दुनिया कचरे के ढेर में नहीं बदल गई है! तब क्या मुमकिन नहीं कि कोई मुर्गा जब चाहे ढेर पर दाना चुगने चढ़े और जोरदार बांग देकर मसीहा बन जाये! आजकल तो ऐसा है।

03 सितंबर, 2014

कबीर से उत्तर कबीर काव्य संकलन (साम्प्रदायिकता के विरुद्ध बनारस की कविता ) संपादक :रामाज्ञा शशिधर pdf

बनारस से जुड़े हिंदी उर्दू के इकतालीस कवियों की साम्प्रदायिकता के विरुद्ध कविताओं का अनूठा संकलन जरूर पढ़िए.कबीर,रैदास,भारतेंदु,ग़ालिब,फाएज बनारसी,गनी बनारसी,प्रसाद,त्रिलोचन,बेताब बनारसी,आफ़ाक बनारसी,नज़ीर,केदारनाथ सिंह,धूमिल,राजशेखर,गोरख पाण्डेय,ज्ञानेंद्रपति,अब्दुल बिस्मिल्लाह,रोशन लाल रोशन,रामेश्वर,जवाहरलाल कॉल व्यग्र,मूलचंद सोनकर,वशिष्ठ अनूप,बेतुक लोह्तबी,दामन लोहतबी,सलीम शिवालवी,अल कबीर,रामप्रकाश कुशवाहा,रामाज्ञा शशिधर,नीरज खरे,व्योमेश शुक्ल,पराग,ललित शुक्ल,राकेश रंजन,नईम अख्तर,अरमान आनंद,उपेन्द्र यादव विनय मिश्र,अजय राय,डा सरोज,वली गुजराती आदि...

https://drive.google.com/file/d/0B4iwECfp_wFfbExMOUxpVHlFdEVHb0R6S2x6bzJpZl9xZlhR/edit?usp=sharing

02 सितंबर, 2014

कबीर से उत्तर कबीर(साम्प्रदायिकता के विरुद्ध बनारस की कविता) :रामाज्ञा शशिधर

हिंदी उर्दू के इकतालीस कवियों-शायरों का दस्तावेज.मूल्य:चालीस रूपए:पृष्ठ 80 ,तानाबाना प्रकाशन,वाराणसी
https://drive.google.com/file/d/0B4iwECfp_wFfbExMOUxpVHlFdEVHb0R6S2x6bzJpZl9xZlhR/edit?usp=sharing

18 अगस्त, 2014

बुरे समय में नींद पुस्तक की संपूर्ण कविताएँ : रामाज्ञा शशिधर pdf

किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन : रामाज्ञा शशिधर pdf file

किसान आंदोलन की साहित्यिक ज़मीन(शोध-आलोचना) पुस्तक यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं.
usp=sharinghttps://drive.google.com/file/d/0B-t8_bs-TD6MM0hZY28taEEzT2c/edit?usp=sharing

12 अगस्त, 2014

पहचानिए:प्रेमचंद और भ्रष्टचंद

गांव की डायरी
प्रेमचंद और  भ्रष्टचंद


रामाज्ञा राय शशिधर


हल की मूठ पकड़े होरियों और फावड़े चलाते हल्कुओं को प्रेमचंद और भ्रष्टचंद में फर्क की गहरी समझ है। वे प्रेेमचंद पर हमले को आजादी पर हमला समझते है। यही कारण है कि प्रेमचंद के पात्र और पाठक निर्मला को अपमानित करने वाले सी¬.बी.एस. ई के अध्यक्ष का पुतला हजारों की भीड़ में जला सकते हैं और मृदुला मुर्दाबाद/निर्मला जिंदाबाद’ के नारे लगा कर आईना दिखा सकते है। प्रेमचंद के ग्रामीण पात्रांे और पाठकों ने भाजपा नेता मृदुला सिन्हा के गृहराज्य बिहार में 2,700 सेकेंड तक राष्ट्रीय राजमार्ग-31 का चक्कर लगाकर सी.बी. एस. ई अध्यक्ष के पुतले को नारों, जनगीतों, पर्चो, भाषणों तख्तियों के बीच फूंक दिया तथा गगन भेदी स्वर में दुहराते रहे कि ‘हमें प्रेमचंद चाहिए भ्रष्टचंद नहीं। गांव के लोगें में ‘दो बैलों की कथा’ वाले प्रेमचंद कितने रचे बसे हैं यह इस बात से साबित होता है कि पांच किलोमीटर की जुलूस-यात्रा में होरी, हीरा, झूरी, हल्कू, गोबर, शंकर, घीसू, हामिद, वंशीधर, निर्मला, धनिया जैसे अनगिनत पात्रों के हाथों में तख्तियां और होठों पर नारे लहरा रहे थे-प्रेमचंद पर अत्याचार/नहीं सहेगा गांव-ज्वार, प्रेमचंद पर हमला यानी स्वतंत्रता पर हमला, हम हैं छात्र मजदूर, किसान/ हम बदलेंगे हिंदुस्तान, प्रेमचंद का यह अपमान। नहीं सहेगा हिंदुस्तान, सीबीएसई मुर्दाबाद, सांस्कृतिक क्रांति जिंदाबाद! यह सब दिल्ली के आईटीओ पुल पर में मिनरल वाटर पीकर पचास वर्षो से’ अबाध क्रांतिकारी स्पीच’ देने वाले बौद्धिकों द्वारा या जनता और जनकला की रोज हजार कसमें खाने वाले राष्ट्रीय सांस्कृतिक संगठनों द्वारा नहीं बल्कि बेगूसराय जनपद के ठेठ गांव सिमरिया की छोटी-सी संस्था’ ‘प्रतिबिंब‘ के बैनर तले लगभग महीने भर के जन अभियान के बाद संभव हो पाया था तथा हिंदी पट्टी की संभवतः ऐसी पहली कोशिश थी। यह जानना दिलचस्प होगा कि गोदान, मैलाआंचल और रागदरबारी के बाद के गांव द्वारा यह सब हुआ कैस। जब गांव के कान मे यह हवा पहुंची कि प्रेमचंद के साथ केंद्र सरकार ने अन्याय किया है तो लोग थोड़ा हिले डुले, फिर सुस्त हुए। प्रतिबिंब के सांस्कृतिकर्मियों ने एक गोष्ठी की ‘प्रेमचद पर हमलाः दुश्मनों की खोज।’ इसके साथ ही जन आंदोलन की रूपरेखा बनाते हुए किसानों, मजदूरों, छात्रों के बीच एक सरल पर्चा जारी किया गया जिसमें लिखा कि ‘आज प्रेमचंद के पन्ने ही हमारे चौपाल हैं। प्रेमचंद के लिए लड़ने का मलतब है होरी जैसे उन करोड़ों किसानों के लिए लडना जिनकी दुश्मन सामंती ब्राहमणवादी व्यवस्था, सरकार और डंकन-अमरीका है। क्या अब प्रेमचंद का कद इस देश में मंत्री पत्नी जितना हुआ।’ पंचों में सांस्कृतिकर्मियों ने पांच कसमें खाईः ‘वर्ष 2003 को हम प्रेमचंद वर्ष के रूप में मनाएगें। सी.बी.एस. ई को निर्मला को पाठयक्रम में ससम्मान लगवाने की कोशिश करेंगे। हम सांस्कृतिकर्मी मानसरोवर की 300 कहानियों का एक साल में पाठ करेंगे। गांव गांव जाकर प्रेमचंद की कहानियों का सार्वजनिक पाठ करेगें। इन कामों की शुरूआत 30 जून, 2003 को राष्ट्रकवि‘ दिनकर की जन्मभूमि से सी. बी.एस. ई के अध्यक्ष का पुतला दहन कर यथावत शुरू कर दी गयी है। पुतला दहन कार्यक्रम और जुलूस यात्रा के लिए जब डेढ. दर्जन किसानों के बेटों ने गांव-गांव घूमना शुरु किया तो सामान्य जनता बुद्धिजीवियों के बीच सबसे बड़ी दीवार भाषा की आई। हमने कहा कि प्रेमचंद पर हमला सी.बी.एस.ई ने किया। उन्होंने समझा सी.बी.एस. ई यानी सी.बी. आई। ’क’ ने कहाः हां भाई, सी. बी. आई भी भ्रष्ट हो चुकी है। ’ख’ ने पूछा सी.बी.एस. ई किस जानवर का नाम है ? पर सबने माना, अच्छा, बौआ! प््रेमचंद नामक लेखक पर हमला अन्याय है, पर हुआ कैसे ? और एक नई भाषा की खोज हुई। ‘आपके बाल-बच्चे स्कूलों में जो किताबें पढ़ते हैं उन्हें भारत सरकार का परीक्षा लेनेवाला विभाग बच्चों की जरूरत के मुताबिक बनाता है। पूरे देश की 12 वीं कक्षा से उस विभाग यानी सी.बी. एस.ई केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने महान कहानीकार प्रेमचंद की किताब हटाकर मुजफरपूर जिले की भाजपा नेता मृदुला सिन्हा की किताब लगाई है। देश के लेखकों द्वारा विरोध करने पर अब आपके बच्चों को दोनों में एक किताब पढ़नी होगंी। जरा सोचिए ! प्रेमचंद की जीवनी और कहानी की जगह आज की नेता की जीवनी और कहानी पढ़े ंतो आपके बच्चे क्या बनेंगे’। बस क्या था। गांव-गांव आग सुलग उठी। गले में नारों लिखी तख्तियां टांगे जिधर से अभियानी गुजरते छात्रांे, मजदूरों, किसानों, महिलाओं के चेहरे पर आक्रोश, असंतोष, बेचैनी, असुरक्षा। सीमाएं तोड़ देते एक स्वर से आवाज गोलबंद होती, प्रेमचंद पर अत्याचार/नहीं सहेगा गांव जवार। क्या कोई आंदोलन बिना विरोध-अंतर्विरोध के ही चरम पर पहुंचता है् ? नहीं! ‘च’ बाबू की मान्यता थी कि कोई चुनावी राजनीति है।‘छ’ साहब ने कहा क्या फर्क पड़ता है कि प्रेमचंद जगह नए लोग पढ़े जाएं। ‘ज’ ने कहा क्या डा. प्रेमचंद पर हमला हुआ ?‘ट’ का स्वर था-बड़ जुल्मी छै इ सरकार । मार-काट अ महंगाई एकर प्रान छीकै। ‘ठ’ का साफ कहना था-जब लालू की जीवनी पढ़ाई जा रही थी तब आप कहां थे ? ‘त’ ने कई स्कूलों को भड़काया-यह लाल झंडा वाला है। ’द’ ने दांत गड़ाया -भैया यह सब नाम कमाने का धंधा है। ‘प’ ने पटाखा छोड़ा-सिमरिया की आवाज आज तक दिल्ली नहीं पहुंची तो अब क्या पहुंचेगी ? ‘म’ ने मक्खन मारा-हां, यार! गंाव में चिल्लाने से सरकार क्या किताब बदल देगी ? यह सब बैठारी की दिहाड़ी हैं। दूसरी ओर सकारात्मक उफान भी था। ‘र’ किसान ने मूंछ हिलाई- एं, ऐसन बात! बाबू इ दिनकर की धरती है। एक फूंक मारों तो अंगंरेज को उखाड़ा। दूसरा फूंक मारा, इ सरकार को उखाड़ों।‘ल’ ने गीत गाया -मानव जब जोर लगाता है। पत्थर पानी बन जाता है। ‘स’ ने हंुकार- सच कहता हूं। ऐसा कुछ भी होता तो मेरा शरीर थरथराने लगता है। मुझे लगता है कि देश के लिए कुछ करना चाहिए। यह सिमरिया गांव का 32 वर्षीय किसान तरूण कुमार है। कसहा, बरियाही, अमरपुर, रुपनगर, गंगाप्रसाद, बारो, गढ़हरा, मल्हीपुर,बडहिया, चंदन टोला, चकिया, बीहट सहित अनेक गांवों मंे लंबे समय तक भूखे-प्यासे, धूप-बरसात से लड़ते किशोर साथी दौड़ते रहे। मुहाने पर पहुंची क्रांति को नेतृत्व नहीं जनता अंजाम देती है। 30 जून के 10 बजे जब पुतला दिनकर द्वार पर जुलूस यात्रा के साथ पहंुचा तो दूसरे अनेक गांवों की जनता हजारों की संख्या में जुटी थी। तय था कि राष्ट्रीय राजमार्ग  की बगल में  ‘सदगति’ का पाठ, भाषण एवं जनगीतों के बाद पुतला जलाया जाएगा। जनता का परावार उमड़ा और सैकड़ों लोगों ने नेतृत्व की उपेक्षा कर राष्ट्रीय राजमार्ग को जामकर पुतला स्थानांतरित कर दिया। फिर सारी गतिविधियां 2,700 सेकेंड तक वहीं चलती रहीं। अगले दिन हिंदुस्तान ने खबर लगाई  निर्मला को लेकर जलाया गया सी.बी.एस. ई का पुतला। दैैकिल जागरण का शीर्षक था सी.बी.एस. ई के अध्यक्ष का पुतला फूंका। और आज ने लिखा ‘सी.बी. एस. ई के अध्यक्ष का पुतला दहन’। अनेक क्षेत्रीय पत्रों में भी खबरें आती रहीं। प्रतिदिन संस्कृतिकर्मी गांव-गांव जाकर प्रेमचंद की कहानियों का पाठ करते है। प्रेमचंद के पात्रों एवं पाठकों से इस पर राय ली जाती है। अब तक ‘सदगति’ ‘ठाकुर का कुआं’ ’सवा सेर गंेंहूं’ का पाठ हो चुका है। साथ ही जनपद के कवि दिनकर की क्रांतिकारी कविताओं का पाठ भी जारी है। लोग चौपाल में घेरकर अपने प्यारे-न्यारे कथाकार की कहानी चाव से सुनते हैं। हजार से अधिक हस्ताक्षर जमा हो चुके है। जानिए कि निर्मला के समर्थन एवं मृदुला के विरोध में अनेक ग्रामीण भाजपा कार्यकर्ताओं ने सहर्ष हस्ताक्षर किए क्योंकि प्रेमचंद उनकी आत्मा में रचे-बसे हैं।  ‘स’ को पता भीं है कि दिल्ली के राजेंद्र सभागार में आग और धुआं पर्चे के रूप में बंट चुका है। दिल्ली की दीवारों पर चिपक चुका है। उसे यह भी पता नहीं प्रेमचंद राष्ट्रीय संगोष्ठी में शेखर जोशी जैसे कथाकार ने चार मिनट तक उनके इस कार्य की सराहना की है।‘स’ नामक ग्रामीण किसान को कितना दुख होगा कि दिल्ली के बुद्धिजीवी जनता के ऐसे आंदोलन को ’स्पीच’ सुनने के दरम्यान चूतड़ों के नीचे दबा देने के कितने बड़े उस्ताद हैं। एक ही उम्मीद है कि होरी और हामिद एक

06 अगस्त, 2014

तुलसीदास के मुखियामार पंचदश दोहे

                      तुलसी जयंती पखवाड़ा २०१४ पर विशेष पेशकश 

गोस्वामी जी को श्रद्धांजलि स्वरूप पन्द्रह मुखियामार दोहे समर्पित हैं.क्यों? इसलिए कि महाकवि के  एक मुखियामुखी  आदर्श  दोहा  'मुखिया मुख सो चाहिए खान पान में एक/पालहिं पोसहिं सकल अंग तुलसी सहित विवेक ' को  यह फक्कड़ कवि इन दोहों का प्रेरणा बीज मानता है.अस्सी भदैनी वाले गोस्वामी बाबा की तरह  इस पीड़ित, प्रताड़ित,बहिष्कृत,उपेक्षित बनारसी तुक्कड़ कवि का शब्द बीज अँखुआ उठा. मुखिया और मुख केंद्रित हर  दोहे को  ट्रुथ सीरम,मेटल डिटेक्टर,सीसीटीवी,माइक्रो केम,उत्तल अवतल समतल लेंस समझकर 
आनंद लीजिए तभी मुखिया के मुख से उनकी आत्मा तक का काशी दर्शन कर सकते हैं.आजकल के कवि महाकवि की कविता चुराकर अपनी बताते हैं,यह तुक्कड़ अपनी तुकबंदी को महाकवि की कहने का दुस्साहस कर रहा है..जब  कबीर,नानक,रविदास,मलूक में जोड़कर आप काम चला रहे थे तब यह कवि आपसे शिकायत करने नहीं गया,फिर तुलसी पर कोई करे  हाय तौबा क्यों? जो नए बाबा लोग फेसबुक तक नहीं जाना चाहते और इस कवि से मुखियामुखी दोहों की मांग कर रहे हैं यह पोस्ट उनके लिए भी है-रामाज्ञा शशिधर

मुखिया  के मुख से बचो     मुख में सौ संसार
पान सुपारी लौंग सा चांपे              बेड़ा पार

मुखिया का चेहरा सरल जैसे गोमुखबाघ
भीतर मलजल सा बहे प्रतिशोध की आग

मुखिया के जीभन छुरी मुख में नकली राम
जो भी जबड़े  में घुसा   उसका काम तमाम

पंचायत में सतयुग  सेवित    एकल  कुर्सी  खास
परंपरा  की खटमल के संग   मुखिया का रहवास

मुखिया के दरबार में   हर दिन लगती खाप
हर स्वाधीन विचार का दमन क़त्ल और चाँप    

नख शिख गलकर ठाठ का   उड़ गया उड़न कपूर
हिरिस न मुखिया का मिटा       ठठरी खोजे हूर

मुखिया को मुखियाइन से घर में  पड़ती  चोट
सड़ा मसूडा       प्यार का तोड़े  जग अखरोट

18 जुलाई, 2014

रूपनगर एक गाँव का नाम है!



 
.न रूप है न रूपया,न नगरीय सुविधा है न बोध.न जाने क्यों इस ठेठ देहात का नाम रूपनगर हुआ.इतिहास के नाम पर अंग्रेजों द्वारा एक दौर में लूट और यात्रा के लिए बनाया गया रेलवे टीसन था.आज़ादी क्या मिली, रेल ने भी रास्ता बदलकर मुंह मोड़ लिया.फिर भी यह गुणी गाँव रूपनगर ही कहलाता रहा.
गाँव का ह्रदय क्षेत्र दुर्गाथान.दिन के तीन बजे. यहाँ हर वार इतवार होता है.चाय के लिए चूल्हे में कोयला चढ़ गया है.फूस की छानी धुएं और आग से भर गई है.किसान और निठल्ले चर्चा को केतली,स्पेन और छन्ने पर खौलाना शुरू कर चुके हैं. बहस में हर चीज ठहरी हुई है.तभी बाल और युवा मंडल से लदी फटफट मैदान में पहुँचती है.
गाँव की संस्कृति में बदलाव और हस्तक्षेप शुरू है...बैनर टंग गया-प्रतिबिम्ब संवाद श्रृंखला .सिमरिया,बेगूसराय,बिहार-851126.बिस्मिलाह खान के बनारस से आई डफली बोलने को बेताब है.बाल कलाकारों के होठ –हम होंगे कामयाब-गीत से गाँव की जमी हुई काई को पोछ देना चाहते हैं...धीरे धीरे अच्छी खासी भीड़ जुट गई है..तास के पत्ते उर्फ़ साहब,जोकर,गुलाम,इक्के,नहले,दहले शर्मा उठे हैं.सत्तर पार के कामरेड गंगाधर पासवान का कमजोर और बीमार शरीर लगातार पसीना बहाकर हर जरूरी चीज को जुटा रहा है और सोलह से छब्बीस की जवानी मोबाइल पर मस्त है.

23 जून, 2014

तानाशाही के दौर में जादुई यथार्थवाद पर बहस जरूरी है : पंकज बिष्ट



 मई के मौसम में जब महिला कालेज रोड का आसमान  गुलमोहर के फूलों से सुर्ख हो गया था और ज़मीन पर सिर्फ भगवा रंगों की बहार थी तब पंकज बिष्ट बीएचयू के हिंदी विभाग में आए. जेनुइन कथाकार,प्रतिबद्ध पत्रकार और सरोकारी एक्टिविस्ट के रूप में वे पहली बार २००६ में तब आए थे जब प्रेमचंद के पात्र सीरियल आत्महत्याएँ कर रहे थे.उन्होंने एक लाख की गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार की राशि सारनाथ जाकर खुद वितरित की थी.दूसरी बार बिष्ट हिंदुत्व के उन्माद में डूबे कबीर के शहर में कार्पोरेट फासीवाद पर बोलने आए थे. कला संकाय के एनी बेसेंट हाल में हिंदी के छात्र, शिक्षकों और नगर के बौद्धिकों के बीच वे एक ऐसे कथा फॉर्म और शैली पर विचार करने आए थे जो तानाशाही के दौर का कला रूप है. हिंदी विभाग के लिए संभवतः यह पहला मौका था जब जादुई यथार्थवाद टर्म अपनी औपचारिक बहस के माध्यम से प्रवेश पा रहा था. आलोक कुमार गिरि द्वारा संगृहीत,लिपिबद्ध और सम्पादित यह व्याख्यान मार्क्वेज़ के बहाने हिंदी की बौद्धिक खिड़की में नया झोंका भरता है.-माडरेटर


19 जून, 2014

गाँव में दो पीढ़ियों के बीच का धागा टूट गया

                                            रामाज्ञा शशिधर 


गाँव में दो पीढ़ियों के बीच का धागा लगभग टूट गया है.ताने को बाने का और बाने को ताने का पता नहीं है.नई पीढ़ी के लिए पुरानी पीढ़ी उस पुराने अबूझ गीत की तरह है जिसका रिमिक्स नहीं बन सकता.पुरानी पीढ़ी के लिए नई पीढ़ी डीजे का कानफोडू शोर है जो सिर्फ पुराने दिलों की धमनी को तोड़ रहा है. इसे समाजशास्त्री लोग 'जेनेरेशन गैप' कहते हैं लेकिन मेरे लिए यह बदलाव पुराने गाँव का नए बनते कथित गाँव से पूर्ण संबंध विच्छेद है.

30 मार्च, 2014

क्या बनारस में जसम,जलेस और प्रलेस के लेखक मोदी मार्ग को आसान कर रहे हैं?

 पाठक मित्रो! बुद्ध,कबीर,प्रेमचंद और बिस्मिल्लाह खान का बनारस इन दिनों सियासी जंग का उग्र मैदान हो गया है.जिन घाटों और गलियों में लोग शांति और मस्ती की खोज करते थे वहाँ बाहरी और इलाकाई युवा हिंदू वाहिनी,राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ,विश्व हिंदू परिषद्,बजरंग दल,शिवसेना और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने लिखित-वाचिक अफवाह और झूठ के साथ डेरा डाल दिया है. उधर गुजरात और दिल्ली से बड़ी संख्या में मोदीमार्गी टीम आ रही है जो अनेक रूपों में समाज में घुसपैठ कर भ्रम फैला रही है.'हर हर मोदी घर मोदी ' और 'या मोदी सर्वभूतेषू राष्ट्ररूपेण संस्थिताः' के आक्रामक संदेशों से काशी के बहुमिश्रित जन मन और जनपक्षीय नागरिकों के भीतर खौफ का बीज डाला जा रहा है.ऐसे में काशीनाथ सिंह के १७ मार्च को बीबीसी में छपे मोदी समर्थक बयान ने उस सवाल को और गहरा दिया जो  समयांतर,मार्च में प्रकाशित हुआ है.जन संस्कृति मंच,जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ का शानदार सांस्कृतिक इतिहास है लेकिन फासीवाद के उभरते इस कठिन दौर में उनकी चुप्पी भी उतनी ही चिंतनीय है.मेरे जैसे सरोकारी और निःसहाय सोचने विचारने वाले नागरिक के पास आपसे अपील करने के अतिरिक्त क्या है.क्या यह देश के बुद्धिजीवियों,लेखकों,अदीबों,कलाकारों,संस्कृतिकर्मियों की सामूहिक जिम्मेदारी नहीं है कि बनारस और भारत की सेकुलर-लोकतांत्रिक रूह की हिफाजत करें.आपसे उम्मीद है. मोदी आंधी से पूर्व समयांतर मार्च में छपी यह रिपोर्ट हिटलर के समर्थक पुरोहित,बाद में फासिज्म के विरोधी,जेल बंदी मार्टिन नीमोलर की आत्मस्वीकृति के साथ पोस्ट कर रहा हूँ ताकि इतिहास हमारी भूमिका का हिसाब रख सके.-माडरेटर 


पहले वो आए
साम्यवादियों के लिए
और मैं चुप रहा 
क्योंकि
मैं साम्यवादी नहीं था 

फिर वो आए
मजदूर संघियों के लिए
और मैं चुप रहा 
क्योंकि
मैं मजदूर संघी नहीं था 

फिर वो
यहूदियों के लिए आए
और मैं चुप रहा 
क्योंकि
मैं यहूदी नहीं था 

फिर
वो आए मेरे लिए
और तब तक
बोलने के लिए
 कोई बचा ही नहीं था

‘काशी में उत्सव और श्मशान की कोई विचारधारा नहीं होती है’.काशी के वाम लेखक संगठनों को देखकर तो ऐसा लगता है कि साहित्य भी इन दिनों विचारधारा से मुक्त और अवसरधारा से युक्त खुला खेल फर्रुखाबादी हो गया है. यूपी में मुलायम और मोदी के दम दिखाने के पहले ही वाम लेखक संगठनों ने हिंदुत्व के गर्भगृह काशी में ‘नमो नमो’ की अपनी आहुति डालनी आरंभ कर दी है.
इसका एक शानदार उदाहरण पिछले दिनों विद्याश्री न्यास के मंच से धर्मसंघ शिक्षा मंडल, वाराणसी में घटित हुआ जहाँ धर्म संघ की लारी के नीचे वाम लेखक संघ की नैनो स्वेच्छया घुस गई.
जसम,जलेस और प्रलेस के अधिकारियों और सदस्यों ने हेडगेवार,गोविंदाचार्य,उमा भारती की कर्मभूमि,मुरली मनोहर जोशी की वोटभूमि,योगी आदित्यनाथ की दंगाभूमि और मोदी की भविष्यभूमि की एक मजबूत सांस्कृतिक कड़ी भाजपा सांसद स्व. विद्यानिवास मिश्र की स्मृति में उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक दशक से लगातार गतिशील वार्षिक आयोजन यात्रा के इस बार के तीन दिवसीय राष्ट्रीय लेखक शिविर(12-14 जनवरी) में इतना बढ़ चढकर प्रदर्शन किया कि साहित्यिक सामाजिक रंगरेजों को भी लाल और भगवा रंग में फर्क करना मुशिकल हो गया.इस आयोजन में प्रलेस के वरिष्ठ लेखक काशीनाथ सिंह,जलेस के स्थानीय अध्यक्ष प्रो.रामसुधार सिंह तथा घनघोर सरोकारी संगठन जसम के एकल संयोजक प्रो.बलराज पांडेय के साथ आधा दर्जन सदस्यों ने अध्यक्षता,संचालन,स्वागत,धन्यवाद और वक्तव्य की ऐतिहासिक भूमिका निभाई.
कहने को तो इस बार का विषय ‘नारी चेतना और हिंदी साहित्य’ था पर चेतना और
रणनीति के स्तर पर हर वर्ष की भाँति इस वर्ष का उद्द्येश्य भी दक्षिणपंथी चुम्बक की ओर साहित्यिक अकादेमिक लौह अयस्क को आकर्षित करना और अपना पंथ मजबूत करना था.सबसे पहले विद्यानिवास मिश्र का स्थानीय दैनिक हिन्दुस्तान में छपा नारी संबंधी अभिलेख-कथन देखिये-“भारतीय नारी नरी नहीं,नारी है.भारतीय लोक विश्वास है कि जिसके कन्या नहीं होती है,वह दूसरे का कन्यादान करके तरता है.कन्या दो कुलों को तारती है और पुत्र केवल एक कुल को”.नरी,नारी,कुल और कन्यादान के पितृबोध के बाद आइए अब इस संगोष्ठी में शामिल होने से ज्यादा आगामी चुनाव प्रचार के लिए आई भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय प्रभारी
मृदुला सिन्हा का गुलाबबाग के काशीखंड भाजपा कार्यालय में भाजपाई महिलाओं और  प्रेस को संबोधित वक्तव्य पढ़िए-सिर्फ नमो नमो से काम नहीं चलेगा.सभी महिला कार्यकर्ताओं को व्यापक जन संपर्क के लिए घरों से निकलना होगा,लोगों को जोड़ना पड़ेगा ताकि नरेंद्र मोदी और भाजपा के पक्ष में चल रही हवा को वोटों में बदला जा सके.” इतना ही नहीं एनसीइआरटी के पाठ्यक्रम से बनारस के प्रेमचंद के उपन्यास निर्मला को एक दशक पूर्व हटवाकर अपना एक एनजीओ आधारित उपन्यास लगवा लेने में सक्षम मृदुला सिन्हा के नेतृत्व में भाजपा महिला मोर्चा का मोदी-जोशी जीत के लिए विशाल मशाल जुलूस भी निकला जिसने सभी अखबारों का पर्याप्त पन्ना घेरा.साहित्य अकेदमी के यात्रा व्यय से चालित आयोजन में फेसवेल्यू के लिए अकादेमी अध्यक्ष की ओर से उड़िया लेखिका प्रतिभा राय और कमल कुमार थीं. दो अन्य लेखिकाओं में एक दिल्ली विश्वविद्यालय की अध्यापक और विद्यानिवास मिश्र की साहित्य अमृत संपादन सहयोगी दक्षिणपंथी डा.कुमुद शर्मा थी, दूसरी पटना की उषा किरण खान. गौरतलब है कि उषा किरण खान जिन्हें इस बार एक सम्मान से नवाजा गया है, संगोष्ठी आयोजक एवं विद्यानिवास मिश्र के छोटे भाई पूर्व आईपीएस दयानिधि मिश्र के आइपीएस मित्र रामचन्द्र खान की बीवी हैं, जिन पूर्व लोकसेवी को बिहार सरकार के वर्दी घोटाले में सीबीआई द्वारा अभियुक्त बनाये जाने पर हाल ही में जेल जानी पड़ी थी.पूरा आयोजन इन चमकदार बाहरी चेहरों के अतिरिक्त स्थानीय दक्षिण-वाम विद्वानों का घोल था जिसके स्थाई उद्द्येश्य को जानने के लिए इस समारोह और काशी के साहित्य विद्यामंडल के ढांचे को जान लीजिए.
यह आयोजन एक दशक से चौदह जनवरी को स्व. मिश्र के जन्मदिन पर उनके भाई के नेतृत्व में विद्याश्री न्यास द्वारा होता है जिसके स्थानिक सहयोगियों में जसम शुरू से रहा है.
यह दुहराने की जरूरत नहीं कि विद्यानिवास मिश्र की हिंदी में छवि साहित्यकार-पत्रकार के आलावा भाजपा के सांसद व देवरिया के कठोर पंक्तिपावन ब्राहमण की रही है.वे आचरण में इतने कट्टर थे कि परिवार के अलावा किसी दूसरे के हाथ से अन्य बर्तन में बनाया भोजन नहीं करते थे,पानी,चाय का अलग गिलास लेकर चलते थे,चुटिया और जनेऊ पंथ के घनघोर समर्थक और उद्धारक थे.अंतिम दिनों में भाजपा सांसद रहते समय उन्होंने बनारस के काशी खंड भाजपा के गुलाबबाग कार्यालय से पूर्वांचल के भाजपाई चुनाव प्रचार का वैदिक रीति से आरंभ किया था. गौरतलब है कि पूर्वांचल के रोबदार-दबंग ब्राहमण नेता स्व. मिश्र पर इस बार का आयोजन जिस धर्म संघ के करपात्री सत्संग सभागार में हुआ और जहाँ की प्रमुख भूमिका में तीनों वाम लेखक संघ के सदस्य थे,की बिल्डिंग के निर्माण के लिए संसद निधि से ८० लाख की राशि उन्होंने अपने संसदीय काल में दी थी. जानना दिलचस्प होगा कि करपात्री जी कौन थे,क्यों स्व.मिश्र ने सत्संग हाल के लिए राशि दी थी तथा आजकल वहाँ क्या होता है?
भारतीय लेखक शिविर का मंचस्थल धर्मसंघ शिक्षा मंडल था जहाँ के आदि महंथ स्व. करपात्री जी वर्ण व्यवस्था के प्रचारक,दलित और स्त्री के वेद अध्ययन के विरोधी,विश्वहिंदू परिषद के अधिकारी,रामराज्य परिषद के संस्थापक,काशी में आजादी के बाद राजनारायण द्वारा पुराने विश्वनाथ मंदिर में दलित भक्त प्रवेश के कारण  नए विश्वनाथ मंदिर के निर्माता थे.कहते हैं विद्यानिवास मिश्र के लिए वे एक आदर्श माडल थे.इस आयोजन के श्रोता इसी धर्म संघ के संस्कृत वेद वेदांग विद्यालय के एक सौ नन्हें ब्राहमण बटुक थे जहाँ अन्य जाति तो छोड़िये श्राद्ध कराने वाले  ब्राहमण बटुक तक का वेद अध्ययन निषेध है.वे बेचारे स्त्री विमर्श क्या समझते, हाँ तीन दिनों तक व्यंजनों का स्वाद समझ कर प्रसन्न रहे.श्रोताओं में इसके आलावा बड़ा गाँव कालेज की कुछ छात्राएं लाई गई थीं तथा कुछ सर्टिफिकेट क्रेता शोध छात्र थे.


 आखिर संसदीय पार्टियों की तरह काशी में विद्याश्री न्यास के साथ जसम,जलेस और प्रलेस का इन्द्रधनुषी गठबंधन या सैंडविच गठबंधन क्यों है?इसके ठोस कारण हैं.सबसे सर्वाधिक रेडिकल लेखक संघ जसम का हाल जानिये जिसके सदस्य इस मंच की लाइफलाइन की तरह हैं.यह ऐसा लेखक संघ है जो बनारस में एक दशक से तीन सदस्यों वाला रहा है तथा इसका कभी चुनाव नहीं हुआ.इसके स्थाई संयोजक प्रो बलराज पांडेय हैं. जब गुरू से झंझट हुआ तो जसम में आ गए.प्रो साहब की विचारधारात्मक  नींद ऐसी गहरी रही कि वाममार्गी मित्र प्रो.अवधेश प्रधान ने धर्म के आध्यामिक आवरण ग्रहण कर लिया. कहते हैं कि एक दशक से वार्षिक व्यक्तिगत चंदे के बल पर प्रो.बलराज पांडेय जसम के प्रभारी हैं तथा अपनी प्रतिभा के बल पर जन संस्कृति मंच को बनारस में निर्जन संस्कृति मंच बनाये रखा है.विद्या न्यास मंच के वे प्लानर से लेकर आमंत्रण वितरक तक रहे हैं. ये और बात है कि दो साल से जसम का एक भी कार्यक्रम नहीं हुआ है.विद्या न्यास के जातिवादी और दक्षिणपंथी रुख से जुड़ने का एक आयाम उनके रोजमर्रे में आप देख सकते हैं.
प्रो बलराज पांडेय ने हिंदी विभाग,बीएचयू अध्यक्ष रहते हुए शोध नामांकन में पिछले साल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण ही नहीं दिया. बड़ा छात्र आंदोलन होने पर उन्हें कोटा देना पड़ा.प्रो बलराज पांडेय का एक रिकार्ड है कि आजतक उन्होंने एक भी शोध अनुसूचित या अनुसूचित जनजाति कोटे से नहीं करवाया है. वे काशीनाथ सिंह के शोध छात्र और प्रलेस के पूर्व सदस्य रहे हैं तथा इनदिनों विद्याश्री न्यास के हिमायती हैं.
दूसरा थोड़ा कम क्रांतिकारी मंच जलेस का है.यह दुर्भाग्य ही है कि जिस जनवादी लेखक संघ के प्रतिबद्ध संस्थापक बनारस के प्रो.चंद्रबली सिंह रहे हैं उनके निधन के पूर्व से ही इस मंच पर दक्षिणपंथ का प्रभाव पड़ने लगा था. आजकल इसके करताधर्ता यूपी कालेज के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो रामसुधार सिंह है.राममंदिर आंदोलन के बाद से वे अक्सर काशी के दक्षिणपंथी साहित्यिक और राजनीतिक मंचों से दहाडते रहे हैं.बनारस में जलेस का भी नई पीढ़ी में कोई विकास विस्तार नहीं होने का कारण विद्यान्यास जैसे मंचों पर जलेस अध्यक्ष की आवाजाही और विचारधारा से गुरेज है.एक ताज़ा प्रमाण दैनिक हिंदुस्तान में लिखी प्रो. रामसुधार सिंह की हालिया टिपण्णी है जिसमें उन्होंने पूरे बनारस के अध्यपकों-लेखकों को विद्याश्री न्यास जैसे मंच और आयोजन की नसीहत दे डाली.
रही बात सबसे पुराने मंच प्रलेस और उसके काशी संरक्षक काशीनाथ सिंह की. काशीनाथ सिंह की मंचीय विचारधारा के विकास का संबंध अपने बड़े भाई नामवर सिंह की विचारधारा से जुड़ा रहा है.जब से नामवर सिंह ने जसवंत सिंह,राजनाथ सिंह,मुरारी बापू,रामदेव,पप्पू यादव आदि के मंचों पर जाना शुरू किया है,काशीनाथ सिंह के लिए चुनौती की तरह हो गया है कि लोकल ही सही कितने दक्षिणपंथी मंचों का उद्धार किया जाए.इसका एक उदाहरण तो विद्यानिवास मंच ही है.काशीनाथ सिंह को याद ही होगा कि भाजपा सांसद रहते हुए विद्यानिवास मिश्र के घर पर एक बार जब अजय मिश्र के उपन्यास पक्का महाल का विमोचन समारोह था तो उन्होंने यह कहकर जाने से इनकार कर दिया कि विद्यानिवास जी भाजपा के सांसद हैं.आज वे वहाँ लोकल हीरो हैं.यह हैरानी और आश्वस्ति है कि काशीनाथ सिंह जैसे प्रभावकारी लेखक के विचलन के बावजूद बनारस में अन्य लेखक संगठनों से कई गुना ज्यादा सदस्यतावाले प्रलेस की लेखक पीढ़ी विद्याश्री न्यास से इतनी दूरी बनाये कैसे रख पाती है.
वाम लेखक संगठनों के बनारसी प्रदर्शन से कुछ सवाल उठते हैं.क्या अब स्थानीय वाम लेखक संगठनों पर राष्ट्रीय संगठनों की कोई पहुँच और पकड़ नहीं है? क्या लेखक मंचों से विचारधारा का सचमुच अंत हो गया है?क्या लेखक संघ के भीतर आंतरिक बहस और लोकतंत्र पूर्णतः खत्म हो गया है? क्या रसूख और चंदे के बल पर कोई भी व्यक्ति लेखक संगठन की फ्रेंचाइजी ले सकता है और उसका दुरूपयोग कर सकता है?क्या लेखक संघों पर पार्टियों के भटकाव का प्रभाव अपने अंतिम दौर में है?क्या केन्द्रीय नेतृत्व की देखादेखी के कारण स्थानिक नेतृत्व में भटकाव है?क्या लिखने पढ़ने वाली नई पीढ़ी में पुरानी पीढ़ी के भटकाव के कारण मंच को लेकर उदासी है?क्या दक्षिणपंथी सत्ता और शक्तियाँ लगातार लेखक संघों को भीतर से खोखला कर रही हैं?
और अंतिम बात. क्या जसम,जलेस,प्रलेस जैसे वाम लेखक संगठन केंद्र में भाजपा और मोदी को सत्ता सौंपने में स्थानिक सहयोगी हैं? भीतर के बरक्स बाहर जवाब ढूँढना मार्क्सवादी विचार नियम का निषेध है और विद्याश्री जैसे मंच का निर्वाह.



29 जनवरी, 2014

क्या मार्क्स को नोमार्क्स दागमुक्त चेहरा दे सकता है

गांव में अब भी हवा मिठाई या रुइया मिठाई बेचनेवाला  आता है.  साइकिल के चौरे करियर,मजबूत टायर,झोलेनुमा तीन चार खाली लटकन बोरे,दायें बाएं कंधे पर कुछ छोटे छोटे झोले. एक ढक्कनदार टिनहा कनस्तर में आकार में भंडार और भार में सेर सवा सेर की बेकरार हवा मिठाई. उसके  एक हाथ में टुनटुनिया घंटी जिसके लगातार टन टन का लुभावन स्वादिष्ट स्वर बच्चों को घर,खेत,मैदान,सड़क,स्कूल से चुंबक की तरह खींच लेता है.
            वह कागज के टुकड़े पर चुटकी भर मिठाई देता और बदले में बच्चे घरों से मक्का,गेंहू,धान,आलू,धनिया,सरसों,चना,मटर,लोहा लक्कड,शीशी-बोतल,चप्पल-जूते लाकर उसके बोरे झोले भरते जाते. हवा मिठाई वाले की पूरी साइकिल लदकर चरमराने लगती,कंधे अकड़ने लगते लेकिन मिठाई आधी बची ही रहती.सारे मोहल्ले का घर खाली,पेट खाली लेकिन  जीभ संतुष्ट.
          स्वाद में  हवा,जुबान पर हवा, दौरी भर अनाज  हवा,पेट में हवा,स्वप्न में हवा.वाह रे हवा मिठाई,तेरा कोई जवाब नहीं.हवा मिठाई वाले की एक समझ होती है-पक्का बेचना है,कच्चा लेना है.मजाल क्या कि आप सिक्के या नोट से चुटकी भर  हवा मिठाई पा लें.
         कारपोरेट बहुराष्ट्रीय बाजार हवा मिठाईवाला है.वह कच्चा लेता है और बदले में पक्का देता है. भारी लेता है और हल्का देता है.पोस्को हो या वेदांता;मोंसेंतो हो या पेप्सी;उन्हें केवल कच्चा चाहिए और पक्का पाइए. इस देश के जंगल,खेत,खनिज,पानी,नदी,जड़ी बूटी,अंतरिक्ष सब देकर उनके बदले टेलीविजन,मोबाइल,स्मार्ट फोन, टेबलेट, सोडा,ड्रिंक,क्रीम,पाउडर लीजिए.
          हम ऐसी दुनिया के निवासी हैं जहाँ हमारे जीने के ठोस सामान प्रेम से,बन्दूक की नोंक से,मर्जी से,बेमर्जी से  दिनरात ढोए जा रहे हैं और हमें जो मिल रहा है वह हमारे लिए कूड़े की सभ्यता बना रहा है.
          दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर है और स्विट्जरलेंड सबसे तंदुरुस्त.
         इसका मतलब हुआ कि हमारे देश के फेफड़े में सबसे ज्यादा खराब हवा है,धमनी में सबसे गंदा रक्त है.
         इसका एक मतलब यह भी हुआ कि जो कच्चा लुटाता है वह बीमार होता जाता है और जहाँ कच्चे पक्के की  स्याह कमाई जमा होती वहाँ की हवा सफ़ेद संजीवनी से भरी रहती है.
         आखिर  हम  पक्का लेने और कच्चा देने की कीमत  कबतक चुकायेंगे?
          क्या पीलिया से शिकार बदन को विक्को टर्मरिक क्रीम स्वस्थ कर पायेगा?
         क्या मार्क्स को नोमार्क्स क्रीम दागमुक्त चेहरा दे सकता है?
     
            

22 जनवरी, 2014

'आप' के विरोध के असल कारण ढूंढिए



कितना सच?पहले लड़े थे गोरों से,अ़ब लड़ेंगे चोरों से 

अब तक पचास लाख सदस्यों और लोकसभाई छब्बीस सौ  उम्मीदवार आवेदकों वाली  'आप' को सोचना ही होगा कि एक साथ इतनी तरह की शक्तियां और विचारधाराएं  उस पर क्यों टूट पड़ी हैं?
       

21 जनवरी, 2014

नदी एक बारीक शिल्पकार होती है

        

नदी अब रेत का कच्छप अवतार है! 


हर साल जनवरी में १९ को रेत शिल्प में बदलती है. बनारस की दृश्यकला  के सैकड़ों छात्र इस शिल्प मेले के कूचीकार-करणीकार होते हैं.भूगोल होता है गंगा के बहरी अलंग का इलाका। कैनवास रेत का मैदान होता है.दूर तक फैला हुआ रेतीला पेपर,कार्डबोर्ड। 
         करणी,कुदाल,छलनी,चाकू,हाथ,पैर सब कूचीमय हो जाते हैं. एक दिन के लिए मीडिया की विराट भूख का यह मेला सुस्वादू आहार होता है.पहले विहार,फिर कैप्चर हुए दृश्यों का आहार।
       

16 जनवरी, 2014

कविता घाट:नया आपातकाल

(बनारसी पनेरी छन्नूलाल चौरसिया के लिए)
रामाज्ञा शशिधर

मगही पान पर कत्था चूना फेरते हुए
बात कतरता जमा देता है छन्नूलाल
कि डाक् साब अजब का था वह साल
जब दीवार लांघकर आया था आपके पास
जर्दा पान सुपारी के साथ
क्या गजब की लत थी जनाब

09 जनवरी, 2014

शुक्ल के घर में हिंदी के हुडुकलुलु

'इतिहास खुद को दोहराता चलता है' इस तथ्य की पुनरावृति इन दिनों कबीर,तुलसी,प्रेमचंद,प्रसाद,रामचंद्र शुक्ल,हज़ारी  प्रसाद द्विवेदी,नामवर सिंह आदि के नगर में विचित्र काकटेल कल्चर के नवोत्थान के साथ चल रही है. समकालीन हिंदी कविता के कुख्यात एंटी हीरो विष्णु खरे द्वारा अगस्त २०१० में लिखे गए एक विवादित लेख के कुछ टुकड़े मणिकर्णिका के अकालमृत मुर्दे की तरह प्रेत बनकर बनारस में मंडरा रहे हैं.

08 जनवरी, 2014

यह हिन्दी आलोचना का हड़ताल युग है


यह टिपण्णी परिकथा के युवा आलोचना विशेषांक के परिचर्चा  स्तम्भ में भी छपी है.रामाज्ञा शशिधर

1. मैं पिछल्ो दो दशक की युवा हिन्दी आलोचना को हिन्दी आलोचना का हड़ताल युग मानता हूँ। जहाँ रचना समय के गति और द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश करती हुई लगातार सक्रिय है, आलोचना समय और रचना से जरूरी मांगों के कारण नहीं अपनी ऐतिहासिक पस्ती और वैचारिक समझौतापरस्ती के कारण कर्म का मैदान छोड़कर हड़ताली मुद्रा में दिख रही है। मैं नब्बे के दशक से पूर्व की आलोचना को पड़ताली आलोचना मानता हूँ। इस मध्य आलोचना की एक नई प्रवृत्ति भी विकसित हुई है जिसे करताली आलोचना कहा जा सकता है।